________________
( २४४ )
टिप्पण-१. ठिई... -हर हाल में मस्त। अनपेक्षा=किसी से भी किसी प्रकार की प्राप्ति की भावना का अभाव। अनीहा=इच्छा रहित भावना। अनासक्ति =किसी से भी प्रतिबद्धता का अभाव । पदार्थ-अरति = पुद्गल में आनन्द मनाने का अभाव । अलीनता=विषयों में अतल्लीनता। अप्रार्थना=किसी से किसी पदार्थ की मांग का अभाव। अलोलत्व= लालसा का अभाव। २. अप्पे तुठ्ठी के दो अर्थ-आत्मतुष्टि और अल्प में तुष्टि। दोनों अर्थ उपयुक्त हैं । आत्मतुष्ट को जीवन-यात्रा के निर्वाह को ही अपेक्षा रहती है और अल्पतुष्ट भी एक के स्थान पर आधा पाकर भी अशान्त नहीं होता है। दोनों ही समय आने पर जीवन की अपेक्षा से भी मुक्त हो जाते हैं। ३. 'संतोष' के रूपों को दरसाने के निषेधात्मक शब्दों को ही गिनाया गया है। मात्र दो शब्द समूह ही भावात्मक स्थिति को स्पष्ट करते हैं—यथास्थित भाव में स्थिति और आत्मतुष्टि। प्रसन्नता, आनन्द, शान्ति, तप्ति आदि शब्द भी 'संतोष' के विधेयात्मक स्वरूप को यत्किञ्चित् अभिव्यक्त करते हैं।
इनके द्वारा कषायों को कैसे जीते
एवं गुणाण जिताए, भावणाए स- संतिए । पवित्तीए रईए य, कसायाणं वसंकरे ॥४६।।
इसप्रकार गुणों के चिन्तन से, शान्तिपूर्वक भावना से, (उन भावों की) प्रवृत्ति और रति से कषायों के वश में करे।
टिप्पण-१. इन भावों से चार प्रकार से कषायों को वश में करने की बात कही है । यथा-चिन्तन, भावना, प्रवृत्ति और रति । २. चिन्तनगुणों के स्वरूप विशद रूप से चिन्तन करना । जिससे क्षमा आदि की समझ दृढ़ होती है। उनके प्रयोग की विधियाँ उपलब्ध होती हैं। ३. भावना-बार उन भावों की आवृत्ति करना—गुणों के चिन्तित स्वरूप की पहले शब्दशः और फिर भावतः पुनरावत्ति करना। जिससे सदगुणों का अवरोध टूटता