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रहस्यमय व्यवहार। इन्हें त्यागना सरलता है। २. य शब्द से वंचना के अन्य व्यवहार और भाव का त्याग गृहीत है अथवा माया के समस्त रूपों का त्याग ऋजुता है। ३. धर्मानुकूलता-धर्ममय-धर्म के अनुकूल व्यवहार ऋजुता है। व्यवहार में भाव भी गर्भित हैं। शुभा अर्थात् आत्मसाधना के लक्ष्य से आचरित धर्मानुकूलता। ४. अवक्रव्यवहार-टेढ़ेपन-कुटिलता से रहित भाव। वक्रता के दो प्रकार हैं-आत्मभाववक्रता और परभाव वक्रता। अपने ही भावों को उत्तमता से विपरीत ले जाना और पराये भावों को भी-ये दोनों प्रकार की वक्रताएँ हैं। इन दोनों का त्याग अवक्र व्यवहार है या भाव है। ५. य शब्द से मोक्षमार्ग से-जिनप्रज्ञप्त तत्त्व से विपरीत व्यवहार, वृत्ति और भाव के त्याग को ग्रहण कर लेना चाहिये। ६. स्वच्छता स्फटिक-सा निर्मल हृदय-आशय। स्वच्छता=भावों की आन्तरिक निर्मलता अपने आपके अवञ्चनभाव में से प्रगट होती है। इसलिये इसे भी ऋजुता माना है । ७. उज्जया का वरा विशेषण दिया है । अर्थात् श्रेष्ठ या उत्तम ऋजुता। साधारण ऋजुता मोक्षमार्ग की अंगभूत नहीं होती है, उत्तम ऋजुता ही मोक्षमार्ग का अंग होती है। ऐसे ही क्षमा आदि भी उत्तम होना चाहिए।
संतोष के रूप-पर्याय
ठिई जहट्ठिए भावे, अणवेक्खा अणीहया । अनासत्ती अमुच्छा वाऽणाउलया अकंखया ॥४४॥
अरई उ पयत्थस्स, अप्पे तुट्ठी अलीणया । अप्पत्थणा अलोलत्तं, संतोसो विविहा मया ॥४५॥
यथास्थित भाव में स्थित रहना, अनपेक्षा, अनीहा, अनासक्ति, अमूर्जा, अनाकुलता, अकांक्षा, पदार्थ की अरति, आत्मा में तुष्टि, अलीनता, अप्रार्थना, अलोलत्व- ये (सभी) संतोष के विविध रूप हैं।