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भी ईर्ष्या, द्वेष, कलह आदि का त्याग भी क्षमा के रूप हो सकते हैं - यह सूचित किया है । ५. हृदय की उदारता अर्थात् अन्य के अपराधों को अपने प्रति तुच्छ व्यवहार को महत्त्व नहीं देना, अन्य को दोषों से ऊपर उठाने की वृत्ति आदि । यह भी क्षमा का ही एक विशिष्ट रूप है । ६. प्रशम अर्थात् शान्ति का भाव । तितिक्षा - भूख, प्यास, शीत, उष्णता, दुःख आदि सहने का अभ्यास । ये दोनों भाव क्षमा के ही तो रूप हैं । ७. 'क्षमा' को साधने का उपाय भी क्षोभत्याग आदि हैं ।
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विनय के रूप
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नमया मउया चाओ, पयत्थाण- मयाण य । नीयावत्ती अदोणत्तं, अप्पणं विणओ मओ ॥ ४२ ॥
नम्रता, मृदुता, पदार्थों के मदों का त्याग (और आत्मगुणों के मद का त्याग), नीचैर्वृत्ति, अदीनत्व और अर्पण विनय माना गया है अर्थात् विनय
भी कई रूप हैं |
टिप्पण- १. नम्रताः
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- आदर, बहुमान की वृत्ति या अकड़ से रहित भाव । २. मृदुता = कोमलता । इसे ही मार्दव कहते हैं । ३. मदत्याग - किसी भी प्रकार के गर्व का त्याग । उपलब्धि का अभिमान ही मद है । उपलब्धि दो प्रकार की - शुभकर्म - उदय-जनित और कर्म - क्षयोपशमजनित । शुभकर्म के उदय से इष्ट पदार्थों का संयोग, उच्च जाति, कुल आदि सुखशाता, सौन्दर्य आदि प्राप्त होते हैं और कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान - श्रुत, तप, चरित्र आदि प्राप्त होते हैं । पयत्थाण के दो अर्थ- पदार्थों का और पदस्थान । पहले अर्थ से 'इष्ट पदार्थों के संयोगों' के मद और दूसरे अर्थ से ‘उच्चपद और अन्य स्थान' के मद का बोध होता है । पहला अर्थ विभक्त्यन्त पद और दूसरा अर्थ समास पद लेने से निकलता है । ये दोनों अर्थ शुभकर्म के उदय से जनित उपलब्धि से संबन्धित हैं । ३. य शब्द से क्षयोपशम