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है और अन्तःस्रोत फूटता है । ४. प्रवृत्ति - सद्गुणों का यथासमय प्रयोग करना - उन्हें व्यवहार में उतारना । जिस समय क्रोध आदि का प्रसंग आये, उस समय क्षमा आदि गुणों को धारण करना । यह भी कषायों को वश करने का एक अभ्यास है । ५. रति-क्षमा आदि भावों में सानन्द मग्न हो जाना । जिससे वे गुण स्वाभाविक हो जाते हैं और कषायों का उदय ही नहीं हो पाता । ६. चिन्तन आदि शान्ति = मन की अक्षोभ अवस्था में ही सही रूप से हो सकते हैं ।
८. गुरु आज्ञा में हर्ष द्वार
जीव की स्वच्छंद -वृत्ति -
कसाय - विवसो जीवो, सच्छंदयाइ वट्टइ । कस्सवि वतयं बंधं विसं मच्चुव्व मण्णइ ॥४७॥
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कषाय से विवश बना हुआ जीव स्वच्छन्दता से रहता है। वह किसी की भी वशता को बन्धन, जहर और मृत्यु के समान समझता है ।
टिप्पण - १. क्रोधी मनुष्य जरा-जरा-सी बात में चिढ़ने लगता है । अत: उसे अकेले रहने में ही शान्ति प्रतीत होने लगती है । मानी जीव अपनी मानहानि सह नहीं पाता है । अतः वह किसी का नियंत्रण नहीं सह सकता । मायी जीव सत्ता चलानेवाले पर ही अपनी माया का जादू चलाने लगता है । यद्यपि लोभी जीव दासता स्वीकार लेता है, फिर भी वह लोभ में बाधक अंकुश को नहीं सह सकता । २. कषाय से विवश जीव स्वच्छन्द बन जाता है अथवा स्वच्छन्द जीव कषायों के वशीभूत हो जाता है । ३. वह किसी 'अन्य के क्या - अपने ही अधीन नहीं रहता है । ४. बन्धन आदि तीन उपमाएँ उसकी स्वच्छन्दता के स्तर की सूचक हैं । उसे धर्म, नीति आदि बंधन लगते हैं ।