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जनित उपलब्धि ग्रहण करना चाहिये । ४. नीचैर्वृत्ति - बड़ों के समक्ष लघुता रूप व्यवहार करना । जैसे- बड़ों के सामने उच्चे आसन से नहीं बैठना, उनसे उच्चकोटि के वस्त्र नहीं पहनना, उनके आसन आदि को नहीं ठुकराना आदि । ५. अदीनत्व = दीनपने से रहित अवस्था अर्थात् पर - पदार्थ को बड़प्पन नहीं देना, उनके अभाव में दुःखी नहीं होना अथवा ऋद्धि, रस और शाता इन तीन गौरवों से मुक्त होना । परपदार्थ से अपना महत्त्व मानने से आत्मा की लघुता प्रकट होती है और दूसरों को तुच्छ समझने की वृत्ति पैदा होती है । अदीनत्व में आत्मभाव का मान और अन्य जनों का आदर - दोनों ही समाये हुए हैं । ६. अर्पण - ममता और अहंकार का विसर्जन । अर्पणता के दो रूप - आत्मा के प्रति और गुरुजनों के प्रति । देहाभिमान के और आत्मा के स्वल्प गुणों में उत्पन्न होनेवाले अभिमान के विसर्जन से आत्मा के प्रति अर्पणता का भाव उत्पन्न होता है । अतः वह विनय रूप है । ७. अहंकार से रहित समस्त व्यवहार विनय है अथवा स्वच्छन्दता के निरोध-पूर्वक आराधना के लिये तत्पर रहना विनय है । ऐसा विनय ही धर्म का मूल कहा गया है ।
ऋजुता के रूप
छल-कूडत्त - चाओ य, धम्माणुकूलया सुहो । अवक्क - ववहारो य, सच्छया उज्जुया वरा ॥४३॥
छल-कूटता का त्याग ( और अन्य भी वंचना रूप भावों का त्याग ) शुभ रूपवाली धर्मानुकूलता, अवक्र व्यवहार ( और साधना मार्ग से किञ्चित् भी इधर-उधर न होता हुआ व्यवहार) और स्वच्छता श्रेष्ठ ऋजुता ( आर्जव ) है ।
टिप्पण - १. छल = वंचन, ठगाई अथवा दिखावटी व्यवहार । छल काही सूचक कपट है । मन में कुछ और बाहर कुछ और ऐसा व्यवहार अथवा किसी को भुलावे में डालने की वृत्ति छल है। कूटत्व — गहरा
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