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नहीं कर सकता । अपने बल से ही कषायों का जय या क्षय किया जा सकता है। इसलिये यह कहा है कि यदि कोई बल है तो वह आत्मबल ही । कषायजयादि के लिये अपने बल के सिवाय और कोई बल नहीं है। अतः आत्मबल में विश्वास करो। ५. आत्मबल अर्थात् पापों को-कर्मों को क्षय करने की अपनी शक्ति । वह शक्ति साधना से जाग्रत होती है। किन्तुं कषाय साधना को तोड़ देता है। परन्तु इससे विचलित नहीं होना चाहिये । क्योंकि कर्मों की कितनी बड़ी राशि क्यों न हो और वे कितने ही लम्बे समय के अभ्यस्त क्यों न हों, उन्हें आत्मबल क्षणभर में नष्ट करने में समर्थ है। ६. अपने आपमें शंका करने से आत्मविश्वास के अभाव में आत्मबल जाग्रत नहीं हो पाता है। अतः जीव दीन बन जाता है । जैसे तिजोरी में वैभव होते हुए भी ताला खोलकर उसे हस्तगत करने की शक्ति न हो तो मनुष्य दीन ही रहता है। परन्तु उसे यह शंका नहीं रहती कि मेरे पास धन नहीं है और भले ही धन उसके हाथ न आया हो तो भी वह अपने को गरीब नहीं मानता है और धन पाने के उपाय करता ही रहता है। वैसे ही आत्मबल के विषय में भी समझना चाहिये । ७. आत्मबल का विश्वास जीव को पुनरपि पुनः कषायजय की साधना में, जब तक उनपर जय प्राप्त न हो जाय, तबतक साधना में जोड़े रखता है। ८. आत्मबल का विश्वासही अदीनता का प्रमुख साधन है।
५. आज्ञा-स्मृति द्वार आत्मविश्वास में हेतु है-जिनेन्द्रदेव की आज्ञा में श्रद्धा
पत्तो जिणेसरो नाही, तिलोग-तिलओ पहू । तेसि आणं मणित्ताणं, तरेमि भव-सायरं ॥२९॥ तीन लोक के तिलक प्रभु जिनेश्वरदेव नाथरूप में प्राप्त हुए हैं। अतः उनकी आज्ञा को मानकर मैं भवसागर से पार हो जाऊँ।
टिप्पण-१. जिनेश्वरदेव की आज्ञा में श्रद्धा आत्मविश्वास की निर्मात्री है। २. जिनेश्वर अर्थात् तीर्थंकर भगवान् । तीर्थंकर भगवान्