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है। ४. कषायों का उदय जब प्रबल होता है, तब कषायजय की सावधानी और संकल्प से युक्त अभ्यास समाप्त हो जाते हैं । ५. जब कषाय का उदय इसप्रकार जीव के कषायजय के पुरुषार्थ को नष्ट कर देता है, तब उनपर जय पाने में निराशा होना स्वाभाविक है। पुनः साधना का धैर्य भी समाप्त हो जाता है। अतः यहाँ कहा गया है कि साधक इस विषय में धैर्य नहीं हारे। वह अपनी साधना के बल और सत्क्रिया-कषायजय के सामर्थ्य और अभ्यास को संयोजित करता रहे, छोड़े नहीं । आत्मबल की जय होती ही है--
बलो अप्पबलो एव, अणाइ-अमियं अहं । खणमित्तण नासेइ, मा य अप्पम्मि संकए ॥२८॥
बल तो आत्मबल ही है। वह अनादि (से जीव के साथ लगे हए) और अमित =सीमा से रहित अनन्त पाप को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है। इसलिये आत्मा (और अपने बल) में शंका मत करो।
- टिप्पण--१. जीव अनादि-अनन्त है। जीव न तो किसी के द्वारा और न स्वतः ही निर्मित हुआ है अर्थात् जीव पदार्थ के आविर्भाव का कोई प्रारंभिक बिन्द्र नहीं है । अतः उसका अन्त बिंदू भी नहीं है। २. जीव अनादि है अतः कर्मसंयोग भी अनादि है और कर्मजनित भव भी अनादि है । कर्मबन्ध के हेतु रूप कषाय हैं । अतः वे भी अनादि हैं । जीव कषाय परिणामों से ही भवभ्रमण कर रहा है। निष्कर्ष यह है कि जीव को कषाय सेवन का अभ्यास लम्बे समय से है। ३. कषायों की राशि अमर्यादित है। क्योंकि कषाय रूप कर्मों का भोगा हुआ फल अपने पीछे पुनः तद्रूप कर्मों के बीजों को छोड़ जाता है। इसप्रकार निरन्तर कषाय-परम्परा चलती रहती है। जब-जब कषायों का आविर्भाव होता है, तब-तब वह कभी भी समाप्त नहीं होनेवाले भाव जैसा ही प्रतीत होता है। ४. कोई दूसरा किसी के कषायों को समाप्त