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और अन्य तपों का विरोधी कोई भी तप जिनेश्वरदेव की आज्ञा में नहीं है । यही दरसाने के लिये तप का अलग से उल्लेख किया है । २. 'धर्म' शब्द से हिंसा आदि पंच-आस्रवों का त्याग और समिति गुप्ति को ग्रहण किया जा सकता है और 'तप' शब्द से बारह प्रकार के तप को । ३. जिनेश्वरदेव की आज्ञा से विपरीत धर्म और तप का आचरण भव-भ्रमण की वृद्धि करता है— मोक्ष का साधन नहीं बनता । क्योंकि वह वास्तविक धर्म और तप रूप में परिणत नहीं होता । ४. जिन - प्रज्ञप्त धर्म भी बाह्य लक्ष्य से करने पर वह जिन-आज्ञा में परिणत नहीं होता तो कषाय- परिणति जिन - आज्ञा में कैसे गर्भित हो सकती है । ५. कषाय और जिनत्व दोनों परस्पर एकदम विपरीत हैं अर्थात् कषाय का अभाव जिनत्व और जिनत्व का अनाविर्भाव कषाय है । अतः कषाय रूप परिणाम जिनआज्ञा में कदापि नहीं हो सकते हैं ।
जीव जिन-आज्ञा भूल जाता है
दुक्कम्म- बहुलो जोवो, जिण-आणं विस्तरs | तम्हा कसायसत्तूसो, नच्चावे भवे दुहे ॥३१॥
- दुष्कर्म की बहुलतावाला जीव जिन-आज्ञा को ( जानकर भी ) भूल जाता है। इसकारण वह कषाय रूपी शत्रु ( जीव को ) भव में दुःख में नचाता है ।
टिप्पण - १. जिनदेव का और उनकी आज्ञा का स्वरूप जानना - अत्यन्त दुर्लभ है । क्योंकि जीव ने गाढ़े पापकर्म बांध रखे हैं । पापोदय से आक्रान्त जीव न तो जिनत्व को जान पाता है और न श्रद्धा ही कर पाता है । अरे ! वह उनके सन्मुख ही नहीं हो सकता । २. पुण्ययोग से जिनदेव को जानने के लिये अनुकूल सामग्री संपूर्ण प्राप्त हो गयी । किन्तु पापों में प्रसन्न जीव उस दुर्लभ क्षण को नहीं पहचान पाता । ३. कोई बिरला जीव उस