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अपने आप पर अनुकम्पा । पापाचरण से होनेवाले दुःखों से बचने की भावना स्व-दया है। यहाँ अपने लिये 'निर्दय' विशेषण से यही भाव सूचित होता है कि-'मैं अनन्तकाल से कषायों से पीड़ित हूँ और उनको नहीं छोड़ेगा तो आगे भी पीड़ित होता रहूँगा-यह जानते हुए भी मैं कषायों के वश में पड़ जाता हूँ । अतः मुझे अपने आपके प्रति भी दया नहीं है । यदि मैं अपने प्रति दयालु होता तो जिन-आज्ञा का कभी उल्लंघन करता क्या?' ३. जिन-आज्ञा के आलोक में अपनी धृष्टता और निर्दयता को देखना-कषाय-जय का एक उपाय है। ४. अपनी धृष्टता और नृशंसता को जान लेने पर जिन-आज्ञा के स्मरण का बल उत्पन्न होता है। अतः जब भी कषाय उदय में आने लगते हैं, तभी जीव को जिन-आज्ञा की स्मृति हो आये-ऐसी स्थिति का निर्माण होने लगता है।
६. दृष्टान्त-द्वार
दृष्टान्त क्या है ?
दिळंता नव-पोराणा, सग्गुणा वावि दुग्गुणा । तित्थयरेयराणं च, जे वि य हिय-बोहगा ॥३४॥
तीर्थंकरों और अन्य सामान्य जीवों के (जीवन के) सद्गुण (=क्षमा आदि गुण) वाले अथवा दुर्गण (क्रोध आदि विकारों) वाले जो भी हित बोधक (प्रसंग) हैं वे दृष्टान्त हैं।
टिप्पण-१. जीवन के प्रसंग दृष्टान्त हैं। २. वे जीवन-प्रसंग चारों गति के जीवों के हो सकते हैं । परन्तु प्रधानता मनुष्यों की है । इसलिये यहाँ मनुष्यगति के जीवों के भेद गिनाये गये हैं। मनुष्य के दो भेद-तीर्थंकर और इतरजन । इतरजन भी दो प्रकार के होते हैं-महापुरुष और साधारणजन । महापुरुष के भी दो भेद-शलाकापुरुष और विशिष्टपुरुष । शलाका पुरुष हैंचक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव । विशिष्टपुरुष के अनेक भेद हो