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( २३० ) 'जिन' बनने के पश्चात् ही धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं । अतः उनकी आज्ञा निःशंक भाव से मानने योग्य है। ३. जिनेश्वरदेव अर्थात् देह में स्थित निर्मल आत्मा । तिलक उत्तमांग मस्तक पर शोभित होता है। वैसे ही जिनेश्वरदेव तीन लोक में तिलक के समान श्रेष्ठ हैं । तिलक मंगल, विजय-प्राप्ति आदि की मंगल कामना रूप होता है। वैसे ही जिनेश्वरदेव भी मंगलरूप और विजय-प्राप्ति हेतु रूप हैं। वे प्रभु अर्थात् परम ऐश्वर्य और सामर्थ्य से युक्त हैं। ४. पुण्ययोग से उन्हें आराध्यरूप से पाया है-इस सौभाग्य को हम पहचानें और उन्हें अपने नाथ के रूप में स्वीकार करें। परम शक्तिपुंज को नाथ स्वीकृत कर लेने पर अपनी आत्म-हीनता अपने आप भाग जाती है। ५. जिनेश्वरदेव को नाथरूप से स्वीकार करना अर्थात् अपने पुरुषार्थ से कषायों पर जय प्राप्त करनेवाले परम आत्मा में श्रद्धा करना है और उनकी आज्ञा में श्रद्धा अर्थात् उनके द्वारा बताये विकार-जय के उपायों में श्रद्धा करना है। ६. भवसागर से पार होने के लिये विशुद्ध चैतन्य और उनके द्वारा बताये गये विकार-जय के उपायों में अनन्य श्रद्धा परम आवश्यक है। वह अनिवार्य साधन है । जिन-आज्ञा से बाहर साधना नहीं है
धम्मो तवो य आणाए, ण बज्झे किंचि साहग ! कसायस्य वसे वासो, तस्स आणाअ बज्झओ ॥३०॥
हे साधक ! (जिनेश्वरदेव की) आज्ञा में ही धर्म और तप होता है, किन्तु आज्ञा के बाहर कुछ भी नहीं होता। कषाय के वशीभूत होकर रहना उस (प्रभु) की आज्ञा के बाहर है।
टिप्पण-१. क्षमा आदि दश प्रकार का या अहिंसा आदि धर्म है। 'तप' धर्म का ही एक अंग है। यहाँ तप को अलग से इसलिये बताया है कि आज कई जन मात्र अनशनादि बाह्य तप को तो कई ध्यानरूप आभ्यन्तर तप को ही साधना का मार्ग मानने लग गये हैं । संवर