________________
( २२७ )
टिप्पण-१. कषाय जीवों के ही होते हैं, अजीवों के नहीं । कषाय रूप कर्म भी जीवों के ही होते हैं। अतः वे जीव से उत्पन्न होते हैं। इसकारण जीव की ही संतान हैं, वे । २. सन्तान अर्थात् पुत्र या किसी के द्वारा उत्पादित उसीके अंश । सुपुत्र माता-पिता के लिये सुखद होते हैं और कुपुत्र दुःखद । कषाय जीव के लिये दुःखद है, इसलिये वे उसके कुसन्तान-कुपुत्र हैं। ३. अपने कुपुत्रों से संघर्ष करने से कुछ भी लाभ नहीं होता है । उनके वशीभूत नहीं होना—यही उनके दुःख से छुटकारे का उपाय है। वैसे ही जब कषायों का उदय हो, तब उनके वशीभूत नहीं होना-उनके सामने दीन नहीं बननायही उनसे छुटकारे का उपाय है। ४. जिससे छुटकारा पाना हो, उसकी उपेक्षा करने से-उसे महत्त्व प्रदान नहीं करने से वह अपने से सहज में ही दूर हो जाते हैं । वैसे ही कषायों को महत्त्व नहीं देने-उपेक्षा करने से वे भी दूर हो जाते हैं। कषायों से हार नहीं मानें
अक्कमति सया दुट्ठा, जयं नासेंति साहणं । ण हारेज्ज तया धिज्ज, संजुजेज्ज बलं कियं ॥२७॥
(ये) दुष्ट (कषाय) सदा आक्रमण करते हैं और यत्ना और साधना को नष्ट कर देते हैं । तब धैर्य नहीं हारे और बल तथा क्रिया को संयोजित करें।
टिप्पण--१. यत्ला अर्थात् साधना में सावधानी या उपयोग से युक्त आराधना में प्रवृत्ति । प्रस्तुत प्रसंग में यत्ना का अर्थ है-'कषायजय में सावधानी' ! २. साधना अर्थात् सर्वविरति और देशविरति का संकल्पपूर्वक अभ्यास अथवा रत्नत्रय की आराधना । यहाँ 'साधना' शब्द में कषायों के दुर्बल, जय आदि करने का अभ्यास भी गृहीत है। ३. कषायों का उदय निरन्तर प्रवर्तमान रहता है । अतः उनका जीव पर निरन्तर आक्रमण चलता ही रहता है । इसप्रकार साधक जीव का उनके साथ सदा संघर्ष होता रहता