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टिप्पण-१. संसार के सकल दुःख इच्छा से ही उत्पन्न होते हैं । कहा है—कामाणुगिद्धीपभवं खु दुक्खं अर्थात् दुःख निश्चय ही काम में आसक्ति से उत्पन्न होते हैं । कामासक्ति इच्छा रूप ही तो है । २. इच्छा के वशीभूत बना हुआ जीव भव-परम्परा की वृद्धि ही तो करता है। कण्डरीक इच्छा की तीव्रता के कारण संयम-सर्वस्व को हार गये और नरकगति में गये । ३. व्याधि के दो भेद-बाह्य और आभ्यन्तर । शारीरिक रोग बाह्य व्याधि हैं । आभ्यन्तरव्याधि के दो रूप हैं—मानसिक और अध्यात्मिक पागलपन, बुद्धि की कुण्ठा, जड़ता आदि मानसिक व्याधि हैं अथवा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय इन तीन घातीकर्मों के उदय से होनेवाले और नोकषाय के उदय से होनेवाले विकार मानसिक व्याधि हैं और कषायजनित विकार आध्यात्मिक व्याधि हैं । ४. सभी व्याधियों के मूल में इच्छा ही कार्य करती हुई प्रतीत होती है । यद्यपि आधुनिक विज्ञान इच्छा के विस्तार को महत्त्व देता है और उससे विकास होना मानता है, फिर भी हम शान्त चित्त से निरीक्षण करें तो प्रतीत होगा कि विज्ञान के विकास के साथ ही अनेक प्रकार की व्याधियों का भी उत्थान हो रहा है। मनुष्य की अतृप्त इच्छाएँ उसे व्यथित करती हैं और अनेकानेक ग्रन्थियों को उत्पन्न करती हैं तथा तृप्त इच्छाएँ शारीरिक और कई मानसिक रोगों को उत्पन्न करती हैं । ५. जो जीव इच्छाओं का त्याग करता है, वह संवर और निर्जरा करता है अर्थात् नये विकारों के उद्भव को रोक देता है और पुरातन विकारों को क्षीण करता है । जब पुरातन विकार सम्पूर्ण रूप से क्षीण हो जाते हैं, तब वह विकारों से विनिर्मुक्त निर्मल चेतनावाला हो जाता है अर्थात् परमाराध्य जिनदेव बन जाता है ।
४. अदीनता द्वार
कषायों का बल अत्यन्त होता है। वे दुर्दम हैं । अतः जीव उनके सामने दीन बन जाता है और उनसे हार जाता है। अतः जीव उन्हें जीतने के लिये अदीन बनें।