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टिप्पण-१. इष्ट पदार्थ आदि का संयोग प्राप्त हो और अनिष्ट पदार्थों का वियोग-यह जीव की इच्छा रहती है। अतः इच्छा के प्रतिकूल कार्य होने पर कोप का दावानल दहक उठता है। इसप्रकार क्रोध की उत्पत्ति में एक बहुत बड़ा कारण इच्छा है। २. मान बड़प्पन पाने की इच्छा और उसके प्रदर्शन से उत्पन्न होता है। इसप्रकार मान के मूल में भी इच्छा कार्यरत रहती है। ३. सत्यवादी और सदाचारी होना तो साधना है। सत्यवान दिखाई देने की इच्छा साधना नहीं दंभ है। आप खुद में सत्य आदि गुण हैं नहीं, किन्तु सत्यवादी और सद्गणी दिखाई देने की इच्छा होती है। अत: वह अपने दुर्गुण-असदाचरण को आच्छादित करना चाहता है अर्थात् माया की जड़ भी इच्छा ही है । ४. किसी भी पदार्थ की चाह लोभ है। 'चाहना' और 'इच्छा' दोनों शब्द एक ही भाव के सूचक हैं । अतः लोभ भी इच्छारूप है । ५. यद्यपि कषाय के उदय में प्रधानरूप से मोहकर्म की प्रकृतियों का उदय ही वास्तविक कारण है, फिर भी निमित्त रूप से अन्य भी कारण हो सकते हैं । यहाँ कषायों की प्रवृत्ति में मुख्य निमित्त रूप में इच्छा बताई है। ६. इच्छा कषाय के उदय में आभ्यन्तर निमित्त के रूप में है । अतः वह प्रबल निमित्त है । वह कषायों को विशेष रूप से प्रज्वलित भी करती है अर्थात् कषायों की उत्पत्ति और प्रसार में दोनों में ही इच्छा कार्यरत रहती है । ७. कहा भी है--'अप्पिच्छे अप्पारंभी, महेच्छे महारंभी अर्थात् अल्प इच्छावाला अल्प आरंभी और महेच्छ महारंभी होता है। अतः इच्छा का त्याग, कषायजय में महान सहायक है। इच्छा की भयंकरता और उसके त्याग से शुद्धि
इच्छाए किर दुक्खाई, ताएव भव-वड्ढणं । सा सव्व-वाहि-मूलाय, इच्छच्चाए जिणो हवे ॥२४॥
इच्छा से निश्चय दुःख होते हैं और उसी से संसार की वृद्धि होती है अर्थात (बाह्य-आभ्यन्तर) सभी व्याधियों का मूल इच्छा ही है । अतः इच्छा त्यागने पर (जीव) 'जिन' हो सकता है।