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३. इच्छा त्याग द्वार
कषाय-प्रतिसंलीनता में इच्छा का त्याग सहायक है। अतः इस द्वार में उसीका वर्णन किया जा रहा है ।
कषायों का मूल इच्छा है
सव्वकसाय-मूलम्मि, इच्छा इवइ का वि य । तम्हा इच्छा-परिच्चाए, तेसि सव्वेसि वज्जणं ॥२१॥
सर्वकषायों के मूल में कोई भी इच्छा होती है। इसलिये इच्छा के परित्याग (करने) पर उन सभी (कषायों) का परित्याग हो जाता है। इच्छा कषायों के मूल में कैसे है सो बताते हैं
इट्ठनिठे अपत्ते य, पत्ते कोहो हि जायइ । महत्तं पतुमिच्छा हि, माणो तह पवंसणं ॥२२॥ सच्चवं दंसिउं इच्छा, माया मोसस्स छायणं । लोहो उ इच्छरूवो हि, जुत्तं ता ताअ वज्जणं ॥२३॥
इष्ट (वस्तु) के प्राप्त नहीं होने पर और अनिष्ट (वस्तु) के प्राप्त होने पर क्रोध ही उत्पन्न होता है । महत्त्व पाने की इच्छा और उसका प्रदर्शन मान है।
(सच्चाई नहीं होने पर भी) सत्यनिष्ठ दिखाई देने की इच्छा मृषा (असत्य भाषण, असदाचरण आदि) का आच्छादन माया है । लोभ तो इच्छा रूप ही है। इसलिये उन कषायों का मूल इच्छा का वर्जन युक्त हैसमुचित है।