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कषाय- प्रतिसंलीनता का शास्त्रीय स्वरूप-
उदयस्स णिरोहो वा, विफलीकरणं तहा । कसयाणं तु सत्यम्मि, जिणनाहेण वण्णियं ॥२०॥
कषायों के उदय का निरोध करना और उदय में आये हुए को विफल - ( कषाय- प्रतिसंलीनता का यह स्वरूप ) जिननाथ के द्वारा शास्त्र में वर्णित है ।
करना-
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टिप्पण - १. जिनेश्वरदेव अर्थागम के वक्ता होते हैं । अतः शास्त्रों में प्रतिपादितभाव उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित है । यहाँ जिनेन्द्रदेव के लिये 'जिणनाहेण' एकवचन शब्द ही दिया गया है । परन्तु जिनेश्वरदेवों के प्रतिपादन में आशय भेद नहीं होता है । जो एक जिनेश्वरदेव का आशय होता है, वही आशय त्रैकालिक अनन्त जिनेश्वरदेवों का भी होता है । इसलिये एकवचन प्रयोग बाधित नहीं है । २. कषाय प्रतिसंलीनता के दो भेद —— उदयनिरोध अर्थात् कषाय को उदय में ही नहीं आने देना और उदय विफलीकरण अर्थात् उदित कषाय को विपरीत फलवाला या निष्फल कर देना । जैसे क्रोध से अनबन हुई । उसे समाप्त कर देना - मैत्रीभाव बना लेना । मान से अपराध हुआ तो क्षमायाचना कर लेना - विनम्र बन जाना । माया से ठगाई हुई तो अपना दोष प्रकट कर देना- सरल बन जाना और लोभ से कोई वस्तु ले ली तो उसे त्याग देना - संतोष करना । इसप्रकार उदित कषाय को निष्फल या विपरीत फलवाला कर देना - उदय विफलीकरण है । ३. उदयनिरोध के उपाय आगम में कहीं दृष्टिगत नहीं हुए । सम्भवतः कषायों के निमित्तों से दूर रहने से, अन्तर्दर्शन से, उच्च-प्रशस्त भावों के अभ्यास से उदय निरोध होता है । वैसे ही शरीरगत जो पित्तादि द्रव्य तत् तत् कषाय के प्रज्वलन में सहायक होता है उन द्रव्यों के वर्धक पदार्थों का सेवन नहीं करने से भी उदयनिरोध संभव है और कषाय से प्रभावित होनेवाले अंगों पर अन्तः त्राटक करने से भी ।