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अर्थ 'कार्य' है । इस शब्द से पहले जुड़ने से प्रतिकर्म' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है-'अभिमुखता से युक्त अनुकूल क्रिया' अर्थात् सेवा । ३. यहाँ संलीनता शब्द से पहले 'प्रति' शब्द जुड़कर प्रतिसंलीनता शब्द बना है। यहाँ 'प्रति' शब्द के दोनों अर्थ ग्रहण किये हैं। प्रतिसंलीनता अर्थात् 'तथारूप भावों में तल्लीन बनानेवाले निमित्तों से परे हट जाना' या 'वहीं उपस्थित रहना' ।
प्रस्तुत प्रसंग में प्रतिसंलीनता का आशय
हेहितो कसायाणं, दूरे होज्जा सुगुत्तिवं । अहवा तेसु हेऊसु, ठिओ अब्भसए परं ॥१८॥
कषायों के हेतुओं से (उनसे) अपनी रक्षा करनेवाला बनकर दूर हो जाये अथवा उन (कषायों) के हेतुओं में स्थित होकर (उनसे) विपरीत भाव का अभ्यास करे (यह प्रतिसंलीनता का आशय है)।
टिप्पण-१. क्रोध आदि उत्पन्न करने के बाह्य कारण उनके हेतु हैं। २. सुगुप्तिवान् = उत्तम भावों के आश्रय से अपने भीतर कषायों के भावों को नहीं आने देनेवाला । ३. कषायों के निमित्तों से परे हटने पर अपनी आत्मशान्ति बनी रह सकती है-जैसे गर्गाचार्य (उत्तरा. २७वाँ अध्ययन)। यह अर्थ पहली परिभाषा के अनुसार है । ४. निमित्तों से सदैव दूर होना संभव नहीं होता है। अतः तथारूप कारणों में स्थित रहते हुए क्षमा आदि भावों का अभ्यास करना-यह दूसरी परिभाषा है। जैसे--अर्जुन-अनगार (अंतगडदसा-) । दूसरे आशय को और स्पष्ट किया जाता है--
विवरीय-पसंगेसु, उवट्ठिएसु साहगो । अर्से रोई करे णेव, बलट्ठा वा सयं गओ ॥१९॥
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