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उनसे असंलग्न-सा रहते हुए अपने उपयोग को निश्चल बनाते रहें । ११. अन्तोदर्शन के दो यों रूप हो जाते हैं - तात्कालिक प्रयोग और अभ्यास ।
अन्तोदर्शन का फल बतलाते हैं—
थिरिभूओ पलोएइ, अन्तस्स विर्याड जया ।
तया भइ तस्सोओ, विलोयए तहि कहि ॥ १४ ॥
जब ( साधक आत्मा) स्थिर होकर भीतर की विकृति को देखता है, तब उसका स्रोत बंद हो जाता है और वह ( विकृति ) भी वहीं कहीं विलीन हो जाती है ।
टिप्पण - १. विकृति अर्थात् मोहकर्म- जनित भावना | उसका स्रोत अर्थात् मोहकर्म का उदयभाव । स्रोत का अवरुद्ध होना अर्थात् कर्म का उपशम होना—थोड़े समय के लिये कर्म का उदय रुक जाना । वहीं-कहीं अर्थात् आत्मा की गहराई में - चेतना के निचले स्तर में । २. जब आत्मा विकृति का दृष्टा बनता है, तब चेतना का व्यापाररत स्तर निष्पन्द हो जाता है । अतः विकृति का भोक्तृत्व बंद हो जाता है । ३ विकृति का भोक्तृत्व बंद होने पर सत्ता में रहे हुए विकृति - जनक कर्म सत्ता में ही दब जाते हैं । ४. विकृति का भोग नहीं होने पर उसका रस क्षीण हो जाता है । अतः उदय में आये हुए कर्म मंद रसवाले या क्षीण रसवाले होकर खिर जाते हैं । जब कर्म मंद रसवाले होकर विलीन होते हैं, तब वह मंद प्रकृति सजातीय प्रकृति में मिल सकती है । ५. अन्तो- दर्शन कषायजय का उपाय है, क्षय का नहीं ।
आत्मदर्शन ( दर्शन का तृतीय भेद) कहते हैं
'विगारो न अहं चप्पा, णाण- दंसण - लक्खणो'अप्पम्म खु रओ होज्जा, उवओगे सया थिरो ॥१५॥
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