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( २१५ ) आभ्यान्तर पदार्थदर्शन अर्थात् अन्तोदर्शन (का द्वितीय भेद)
अंतोमुहो हवित्ताणं, निरिक्खिज्ज सयं मणं । नासयएऽसुहं भावं, ण तम्मि पवहे ठिओ ॥१३॥
अन्तर्मुख होकर (साधक) अपने मन का निरीक्षण करे। (यदि) अशुभ भाव (चल रहा हो, तो उस-) का आस्वादन नहीं करे और उसमें बहे भी नहीं । (किन्तु) स्थिर होकर (निरीक्षण करता) रहे।
टिप्पण-१. देहदर्शन और श्वासदर्शन में भी साधक अन्तर्मुख होकर ही निरीक्षण करता है। किन्तु उस समय देह और श्वास रूप बाह्य पदार्थों का ही निरीक्षण करता है। इसलिये वह अन्तोदर्शन नहीं है। २. मनोद्रव्य सूक्ष्म है। जब मन में चिन्तन चल रहा हो, तब मन को ज्ञेय बनाना या मन का निरीक्षण करना मनोयोग-दर्शन है। मनोयोग का निरीक्षण करने के लिये और अधिक अन्तर्मुख होना पड़ता है। अतः गाथा में अन्तर्मख बनने की सूचना दी है। ३. शुभ भाव के निरीक्षण का विधान नहीं किया है। किन्तु अशुभ भाव के निरीक्षण का स्पष्ट विधान किया है। ऐसा क्यों ?-मन की दो अवस्थाएँ हैं-सामान्य और असामान्य । साधारण चिन्तन-निरतता मन की सामान्य अवस्था है और अशुभ की तीव्रता मन की असामान्य अवस्था । शुभ की तीव्रता भी मन में होती है । किन्तु वह मन की असामान्य नहीं, इष्ट सामान्य अवस्था है । अतः उससे जीव के कुछ भी हानि नहीं है। हानि तो अशुभ विचारों से ही होती है। इसलिये उस असामान्य अवस्था के निरीक्षण का विधान किया है। ४. जब मन में क्रोधादि भाव उठ रहे हैं, तब सावधान होकर उन भावों पर अपना उपयोग लगाये । ऐसा करने से वे अशुभ भाव लम्बे समय तक नहीं टिक पायेंगे । यह कषायजय का तात्कालिक उपाय है। परन्तु इसे करना सरल नहीं है। क्योंकि आवेश में वैसा करने का भान ही