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{ २१४ ) ... बाह्य प्रेक्षाओं से शुद्धि तो होती है। किन्तु उन्हीं में अवरुद्ध मत हो जाओ । क्योंकि साधना इतनी मात्र ही नहीं है और उनसे निःशेष उपलब्धि नहीं होती है।
टिप्पण-१. अन्य जनों में इन बाह्य प्रेक्षाओं का महत्व अधिक है। जैनधर्म में इनको ग्रन्थकारों ने साधना में स्थान दिया है। आगमों में इनका उल्लेख नहीं है। २. श्वासदर्शन के अन्यदर्शनियों में विभिन्न रूप हैं। बौद्धों में यह 'आनापानस्सति' के रूप में प्रतिष्ठित है और योगियों में 'प्राणायाम' के रूप में। दोनों के परम्परा के अनुसार विभिन्न रूप हैं। ३. देहदर्शन बौद्धों में विपश्यना के नाम से कुछ भिन्न रूप से साधना का एक अंग है। योगदर्शन में देहदर्शन करते हुए अन्नमयकोशादि से पार होते हुए अन्तरतम में पैठने का प्रयास किया जाता है। ४. जैनधर्म में इस साधना के माध्यम से औदारिकशरीर, पर्याप्तियों, प्राण, तेजस्-शरीर और कार्मण शरीर के साक्षात्कार का अभ्यास किया जा सकता है और फिर आभ्यन्तर में पैठने के रूप में कर्मचेतना और कर्मफलचेतना का साक्षात्कार करने का अभ्यास किया जा सकता है। यह अपना चिन्तनमात्र है। ऐसा कोई करता है या किसी ने किया है-पता नहीं । ५. सम्प्रति साधक प्रेक्षाध्यान, विपश्यना आदि के नाम से इन्हीं को महत्त्व दे रहे हैं और साधना के अन्य अंगों की उपेक्षा कर रहे हैं। उन्हीं को यहाँ सावधान किया गया है। ६. जैनधर्म में इसी साधना को ग्रन्थकारों ने 'ज्ञातृदृष्टाभाव' के रूप में, अन्यर्मियों में उन्मनीभाव, साक्षीभाव, अकर्ताभाव आदि रूपों में किंचित्-किंचित् अन्तर के साथ अपनाया गया है। ७. कई साधकों की यह वृत्ति होती जा रही है कि इसके सिवाय अन्य साधनाएँ वृथा हैं। उसी एकांगी दृष्टि का प्रतिषेध करने के लिये कहा गया है कि साधना मात्र इतनी ही नहीं है और इससे अशेष फल नहीं पाया जा सकता।