________________
( २१२ )
फिर भी स्थिर आसन से अभ्यास करना सुगम बनता है। १२. स्थिर बैठकर अभ्यास नहीं हो पा रहा हो तो शरीर की अस्थिरता में भी कुछ अभ्यास किया जा सकता है। इस अभ्यास से मनोवेगों को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है। देह-प्रेक्षण (बाह्यदर्शन का तृतीय भेद)
देहं चित्तेण पेहेज्जा, पायंगुट्ठा उ आसिहं । सिहाअंगुट्ठ-पज्जत्तं, इमं तु देह-दसणं ॥ ॥१०॥
पैर के अंगूठे से लगाकर चोंटी तक और चोंटी से लगाकर (पैर के) अंगुठे पर्यन्त-चित्त के द्वारा देह को देखें । यह देहदर्शन है।
देहदर्शन की विधि--१. पद्मासन आदि सुखासन से बैठ कर या सोकर स्थित होना । २. देह का तनाव ढीला करना। ३. श्वासोच्छ्वास सम और स्वाभाविक । ४. चित्त के द्वारा निरीक्षण प्रारंभ करना । पैर के अंगुठों पर चित्त जमाना। क्रमशः शनैः शनैः आगे बढ़ते हुए अंगुलियों, पंजों, एड़ियों, टखनों, पिंडलियों, घुटनों, जंघाओं, पायु, उपस्थ, पेडू, पेट, नाभि, पसलियों, हृदय-कप, वक्षस्थल, पीठ, कंधों, भुजाओं, हाथों, हस्त-पंजों, अंगुलियों, पुनः हाथ में ऊपर की ओर आकर, कंठकूप, गला, कंठमणि, ठुड्डी, मुख, जिह्वा, तालु, नाशिका, आंखों, कानों, भ्रूमध्य, ललाट, सिर के पृष्ठ भाग और मस्तक को सूक्ष्म रूप से देखें। फिर मस्तक में सहस्रारचक्र का निरीक्षण करते हुए विपरीत क्रम से पैर के अंगुठों के नखाग्र भाग तक चित्तमार्ग से ही आये । ऐसा करने में कम से कम पन्दरह मिनिट लगाये। फिर आधा घण्टा ।
टिप्पण--१. देहदर्शन से देहगत द्रव्य सम होते हैं । २. द्रव्यलेश्या प्रशस्त होती है। अतः भावलेश्या भी प्रशस्त होती है। ३.