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दिया गया है। क्योंकि यह भय विवेक-जनित है, इसलिये मोहरूप नहीं है । फिर भी यह पर-अपेक्षित है । इसलिये इसका स्तर अति निम्न है । किन्तु प्राथमिक अवस्था में यह भाव कषाय के विस्फोट को रोकता है। ३. स्थानदर्शन-'मैं कहाँ हूँ ?--घर में हूँ या बाहर हूँ ?--सभा में हूँ या अकेला हूँ ?–मेरे व्यवहार से किसी का हित होगा या अहित ?-मेरा हित होगा या अहित ? -मैं उत्तरदायित्व के स्थान पर हूँ या नहीं-आदि' का चिन्तन करना । स्थानदर्शन में प्रधानरूप से आत्म-सम्मान को सुरक्षित रखने के भाव हैं। ४. य शब्द से 'मेरे समक्ष कौन हैं-बड़े या छोटे ?' अथवा 'विनय आदि का प्रसंग है या और किसी का ?' आदि बातों का विचार भी 'स्थान' शब्द के साथ गभित हो जाते हैं। ५. प्रतिक्रिया-दर्शन
-'मेरे कषाय-जनित व्यवहार से लोगों के मेरे प्रति क्या भाव होते हैं' या भविष्य में मेरे प्रति क्या भाव बनेंगे ?'-इनका विचार करना । इसमें लोकलाज का भाव प्रमुख है । ६. प्रसंग-दर्शन में परदर्शन ही है। इसमें परजन के रुख को मान देकर कषाय का उपशम किया जाता है। यद्यपि इस भाव से वास्तविक कष्णयजय नहीं होता । किन्तु अंशमात्र ही सही, जय तो प्राप्त होती ही है। प्रसंगदर्शन से लोकभय, आत्मगौरव की सुरक्षा, लोकलज्जा आदि भाव उत्पन्न होते हैं, जिससे कषाय-उदय बाहर अधिक विस्तार नहीं पाता है -संकुचित हो जाता है-मन तक ही सीमित रह जाता है। ७. कषाय का बाहर विस्तार नहीं होना भी जय ही है।
श्वास-प्रेक्षण (बाह्यदर्शन का द्वितीय भेद)--
थिरे ठाणे य आसित्ता, आणपाणं निरिक्खए । गयागयंथिरं होतं, इमं तु सास-दसणं ॥९॥
स्थिर आसन में स्थित होकर (और चलते-फिरते हुए) (बाहर) जाते-(भीतर) आते और स्थिर होते हुए आनप्राण अर्थात् श्वासोच्छवास का निरीक्षण करे-यह श्वास -दर्शन है।