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दीनभाव का परित्याग करना । आज्ञास्मृति अर्थात् जिनेश्वरदेव की आज्ञा को याद रखना । दृष्टान्त अर्थात् कषाय-जय के कथानक, घटना-प्रसंगों, चरित्रों आदि को सुनना आदि । विरोधि - भावलीनता अर्थात् कषाय के विरोधी भावों का अभ्यास करना | गुरु आज्ञाहृष्टता अर्थात् गुरुजनोंरत्नाधिकों के द्वारा प्रदत्त आज्ञा में प्रसन्नता का अनुभवकरना । कर्म विपाकचिन्तन- दुःख, सुख, हानि, यश, अपयश आदि अपने ही कर्मों के फल हैं-ऐसा चिन्तन करना । ३. इन उपायों से कषायों को बहुत कुछ वश में किये जा सकते हैं । जिन - प्रज्ञप्त भावों में से ही इन उपायों को एकत्रित करके ही इनका वर्णन किया गया है। जिन आगम तो महासागर है । उनमें अवगाहन करते हुए जो रत्न हाथ लगे, उन्हें यहाँ सजा दिया गया है । ४. 'आदि' शब्द से साधकों की जिनागम- सागर में अवगाहन की स्वतंत्रता सूचित की है अर्थात् साधक जिनागम रूप महासागर में अवगाहन करते हुए ऐसे अन्य भावरत्नों को प्राप्त कर सकते हैं ।
१. दर्शन द्वार
दर्शन के भेद-प्रभेद-
दंसणं तिविहं वृत्तं, बज्झस्संतस्स चप्पणो । पसंग - सास- देहाणं, पेहणं बज्झ दंसणं ॥७॥
दर्शन तीन प्रकार का कहा गया है - बाह्य का, भीतर का और आत्मा का । प्रसंग, श्वास और देह का प्रेक्षण बाह्यदर्शन है ।
टिप्पण -- १. दर्शन अर्थात् अपनी चेतना के द्वारा देखना - निरीक्षण करना । २. दृश्य पदार्थों की अपेक्षा से दर्शन के तीन भेद होते हैं । वृत्तं अर्थात् ज्ञानियों के द्वारा कहे गये हैं । वे दृश्य पदार्थ हैं—बाह्यपदार्थ, आभ्यन्तरपदार्थ और आत्मा । इन तीनों का दर्शन अर्थात् बाह्यपदार्थदर्शन, आभ्यन्तरपदार्थ-दर्शन और आत्मदर्शन । ३. बाह्यपदार्थदर्शन