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राजा उद्दायण को इससे बड़ा खेद हुआ । यह उसके पराक्रम के लिये बहुत बड़ी चुनौती थी । उसने उस चुनौती को स्वीकार किया ।
सिन्धु-नरेश ने अवन्ति-नरेश को घेर लिया । अवन्ति की सेना को हारना पड़ा । सिन्धु-नरेश ने चण्डप्रद्योत को बंदी बना लिया और उसके माथे पर-'ममदासीपति-ये अक्षर अंकित कर दिये और वह अपने देश की ओर चल पड़ा । बीच में वर्षाकाल आ गया । मार्ग अवरुद्ध हो गये । पूरी सेना का आगे बढ़ना संभव नहीं रहा । अतः उचित स्थान पर डेरे डाल दिये गये।
वर्षाकाल में पर्युषण का समय आया । उद्दायण भ. महावीरदेव के उपासक थे । उन्होंने पर्युषण पर्व की आराधना की । प्रतिक्रमण के पश्चात् उन्होंने प्रद्योत राजा से क्षमा याचना की । कैद में पड़ा हुआ राजा प्रद्योत हँसा और बोला-"यह कोई क्षमा याचना की विधि है क्या ? मुझे बंदीखाने में डालकर क्षमा मांग रहे हो ? यह सही क्षमा याचना है क्या ?"
तब उद्दायण ने कहा-"आपने ठीक कहा । मैं अब सही रूप से क्षमायाचना करूँगा ।" राजा उद्दायण ने उसके बन्धन खोल दिये । स्वर्णगुलिका उसे समर्पित कर दी और मस्तक के अक्षरों को ढंकने के लिए स्वर्णपट्ट प्रदान किया ।
यह दृष्टान्त कषायजय के तीसरे प्रकार को स्पष्ट करता है। कषाय-वशीकरण की भूमिका--
किसीकाउं उवाया जे, कित्तिया तेहि भूमिया । णिट्ठाविया वसीकाउं, कित्तइस्सं च कारणं ॥४॥
(कषायों के) कृश करने के जो उपाय कहे गये हैं, उनके द्वारा (कषाय) वशीकरण की भूमिका निर्मापित की (जाती है या) की गयी और वशीकरण का कारण कहूँगा।