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टिप्पण - १. आवेशात्मक भावों में श्वासोच्छ्वास विशृंखल हो जाता है । अतः वह सम बना रहे तो आवेश लम्बे समय तक नहीं टिक पाता है । २. श्वास-संयम के लिये श्वास- दर्शन आवश्यक है । इस गाथा में श्वास - दर्शन की प्रक्रिया दी है । ३. थिरे ठाणे शब्दों का आशय 'स्थिर आसन में है और आसित्ता का 'बैठकर ' । स्थिर आसन में बैठकर श्वासोच्छ्वास का निरीक्षण करना चाहिये । ४. 'स्थिर आसन से बैटना' - इस विधि का यह एकान्तिक नियम नहीं है - यह 'य' शब्द से सूचित किया है अर्थात् चलते-फिरते हुए भी श्वास- दर्शन किया जा सकता है । परन्तु ऐसा करने से ईर्यासमिति में बाधा उत्पन्न नहीं होनी चाहिये । जैसे स्थिरता रूप एकान्तिक नियम नहीं है, वैसे ही बैटना भी । खड़े रहकर और सोकर भी श्वासदर्शन किया जा सकता है । ५. श्वास-दर्शन कायोत्सर्ग का एक अंग है । परन्तु यहाँ श्वासदर्शन को प्रधानता दे दी है और काया की स्थिरता को उसकी पूरक क्रिया के रूप में लिया गया है । अतः वह अत्यन्त गौण हो गयी है । ६. श्वासदर्शन की विधि - बाहर जाते हुए श्वास में चित्त जमाकर उसे बाहर जाते हुए और भीतर जाते हुए श्वास को भीतर जाते हुए अनुभव करना । अपनी ओर से कुछ भी विशेष प्रयास नहीं करना - यह पहला स्तर है । कुछ समय के अभ्यास के बाद उन्हें लम्बे होते हुए अनुभव करना - यह दूसरा स्तर है । फिर श्वास को स्थिर होते हुए अनुभव करना - यह तीसरा स्तर है। यह सहज कुंभक की स्थिति है । इस अभ्यास से विकल्पों का वेग मंद होता है । ७. आहार के बाद तत्काल यह क्रिया नहीं करना । इस श्वासदर्शन के अभ्यासकाल में आहार सात्विक और मर्यादित रहे -- इसका ध्यान रखना । ८. श्वासदर्शन से देह की गरमी बढ़ने की संभावना रहती है । अतः उसका मर्यादित रूप से अभ्यास करना चाहिये । ९. श्वासदर्शन की अति से निद्राक्षय होना संभव है अथवा दूसरे-तीसरे स्तर तक आते-आते निद्रा आने लगती है । अतः दोनों दोषों से बचने का ध्यान रखना चाहिये । १०. गयागयं शब्द से अभ्यास के दो स्तरों को और थिरं शब्द से तीसरे स्तर को ग्रहण किया है । ११. भले श्वासदर्शन के अभ्यास में दैहिक स्थिरता अनिवार्य विधि नहीं है ।