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नहीं रह पाता है। परन्तु अभ्यास करने पर क्रमशः साधनाबल उत्पन्न होता है । ५. अपने अशुभ भावों के निरीक्षण के लिये तीन बातें आवश्यक हैं-अनास्वादन, अनुपप्लव और आत्मस्थिति । ६. अनास्वादन-उन विकारी भावों का रसास्वादन नहीं करना। जब वे भाव उठ रहे हों तब उन भावों का भोक्ता नहीं बनना अर्थात् उन भावों से अनुरञ्जित नहीं होना। जैसे व्यक्ति पास-पड़ोस की लड़ाई अपने स्वार्थ में कुछ बाधा नहीं पड़ती हो और उसके निवारण की सामर्थ्य न हो तो जिस निर्लिप्त भाव से उस दृश्य को देखता है, वैसे ही निर्लिप्त भाव से अपने विकारी भावों का देखना, किन्तु उनमें रस नहीं लेना। ७. अनुपप्लव-पानी के तेज प्रवाह में व्यक्ति बहना नहीं चाहकर भी तद्रूप बल की कमी के कारण बहने लगता है। फिर भी वह उसमें हाथ-पैर मारकर तैरने का प्रयत्न करता है और उस प्रवाह के वेग से अपने को मुक्त करता है-किन्हीं उपायों से; वैसे ही साधक कषाय के वेग में बहना न चाहकर भी बहने लगता है, तब वह उनमें अपने उपयोग को उनसे लिप्त होने से बचाता रहे और अपने चित्त को उस वेग में उखड़ने नहीं दे। ८. आत्मस्थिति-जैसे प्रवाह में प्रवाह का परिमाणक स्तंभ स्थित रहता है,
वैसे ही विकारी भावों के वेग में वेग का परिमाण करते हुए दृष्टाभाव में अटल रहना, अस्थिर नहीं बनना। यह आत्मस्थिति पहले के दोनों भावों को निष्पन्न करने में समर्थ होती है। ९. ये भाव उपलब्ध कैसे होते हैं ?--पुनरपि पुनः धैर्यसहित अभ्यास करने पर । गाथा के तीसरे और चौथे चरणों में इन तीनों भावों का संग्रह किया है। १०. इन तीनों भावों की उपलब्धि के लिये नियत समय में अभ्यास अपेक्षित रहता है। जैसे कि मल्ल नियत समय पर व्यायाम करते हैं और कुश्ती के दाव-गेच खेलते हैं । विधि--शान्त स्थान में यथायोग्य आसन पर स्थित होकर मनोनिरीक्षण नियत समय पर करें। उस समय मन में जो भी भाव चल रहे हैं-अशुभ या शुभ, उन्हें देखते रहें। उन भावों के वेग को भी देखते रहें और आप स्वयं स्थिर रहकर