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श्रेष्ठी ने सबको आश्चर्यचकित करते हुए शान्त स्वर में कहा - " आप नाराज न होइए । मेरा पुत्र बड़ा समझदार है । इसने मुझे अपना कर्तव्य याद दिलाया कि पहले महमानों को भोजन कराया जाये और घर का स्वामी बाद में भोजन करे। मैं आपसे हाथ जोड़कर विनय सहित प्रार्थना करता हूँ कि आप सभी जन प्रेम से भोजन करिये ।....
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कोई बीच में बोल उठा -- “ अपमान की भी कोई सीमा है ! अरे ! आपको पंसेरी परोसी !
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“पंसेरी ! ”—–श्रेष्ठी मधुरता से हँसते हुए बोले -- “ इसमें कोई अपमान नहीं । हम व्यापारी तो बाटों से खेलनेवाले हैं। जिंदगी भर मैं भौतिक पदार्थों को बाटों से जोखता रहा । अब जीवन को जोखना है - यह याद दिलाया है, किशोर ने ....'
किशोर यह बात सुनकर गद्गद हो गया। उसकी आँखों में हर्ष के अश्रु भर आये। वह अवरुद्ध कण्ठ से श्रेष्ठीजी से क्षमा-याचना करते हुए बोला - “पिताजी ! आप मुझे क्षमा करें। आप धन्य हैं, तात ! मैंने आपकी अति कड़ी परीक्षा की ? आफ्ने मात्र क्रोध कषाय को ही नहीं जीता । आपने मान आदि सभी कषायों को जीत लिया। आप जैसे महापुरुष को पिता के रूप में पाकर मैं धन्य हो गया ।" यह कहते हुए वह श्रेष्ठीजी के चरणों में झुक गया।
" वत्स ! मुझे संतोष है कि मैं तुम्हारी परीक्षा में पास हो गया"उन्होंने किशोर को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया । किशोर की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे । पुत्र को सीधा खड़ा करते हुए पिता ने कहा"छी : ! छी : ! किशोर ! तुम रोते हो ! वत्स ! मैं धन्य हो गया- - तुमसा ज्ञानी पुत्र पाकर ! तूने तो मेरी दुर्गति के ताले ही जड़ दिये....".
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"पिताजी ! मुझे क्षमा.... !” किशोर आगे नहीं बोल सका । श्रेष्ठीजी ने अपने दुपट्टे से उसके अश्रु पोंछते हुए कहा - " मैंने तो कभी से तुम्हें क्षमा कर दिया, वत्स ! परीक्षक पर कहीं क्रोध किया जाता है ?"