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वह एकदम व्याख्यान में खड़ा हो गया और बोला - "गुरुदेव ! काकाजी कोकोध के प्रत्याख्यान करवा दीजिये ।"
लोगों ने सोचा--'किशोर कैसी गल्ती कर रहा है ? यह बात क्या सभा में कहने की होती है ? अभी बिजली कड़केगी ! अभी तूफान आयेगा ! ' और • सचमुच ' में श्रेष्ठी के लिये किशोर के वचन पारा ऊँचा चढ़ने में पर्याप्त कारण था । किन्तु श्रेष्ठी पर कुछ तो उपदेश का प्रभाव हुआ और कुछ किशोर के भक्तिपूर्ण मधुर व्यवहार से वे अपनी दुर्बलता को दुर्बलता रूप में समझने लग गये थे । अतः उन्होंने सोचा -- 'ठीक ही तो कह रहा है, किशोर ! बहुत किया है क्रोध ! अब बस करें । क्रोध नहीं करेंगे। क्या हानि होगी उससे
वे खड़े हो गये। दोनों हाथ जोड़कर लोगों को आश्चर्य में डालते हुए विनम्र शब्दों में बोले -- "गुरुदेव ! करवा दीजिये जीवनभर के लिये क्रोध करने के प्रत्याख्यान ! " मुनिराज ने उन्हें सावधान करते हुए कहा"श्रेष्ठीजी ! सदा के लिये क्रोध के प्रत्याख्यान कैसे होंगे ? क्रोध का तो विवेक करना होता है ।"
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श्रेष्ठीजी ने आग्रह पूर्वक कहा -- " जैसे एक दिन के बड़े क्रोध के प्रत्याख्यान करवाते हैं कि नहीं ! वैसे ही जिंदगी भर के करवा दीजिये । बहुत कर लिया क्रोध ! बहुत लाड़ लड़ाये उसे ! अब बेटे की भी बात रहे ।'
संत ने उन्हें 'उपयोग सहित बड़े क्रोध करने के प्रत्याख्यान' करवा दिये । किशोर भी आश्चर्य चकित रह गया । किन्तु वह समझा कि 'पिताजी ने अपना स्वाभिमान रखने के लिये प्रत्याख्यान ले लिये हैं। क्या यह नियम निभा भी पायेंगे ? जो भी हो - अभी तो इन्होंने प्रत्याख्यान ले ही लिये हैं । परन्तु ये इस प्रत्याख्यान में कितने अडिग रहेंगे - यह तो अवसर आने पर पता लगेगा। मुझे इनकी परीक्षा लेना चाहिये ।'
अब किशोर ने सीधा बोलना ही बंद कर दिया । आड़ा बोलना । टेढ़ा चलना। बात-बात में चिढ़ना । परन्तु श्रेष्ठी पूरे शान्त थे । वे सोच