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भान स्थिर नहीं रह पाता है। परन्तु उस समय अपने व्यवहार को उसके कारण दूषित न होने दे। यदि तात्कालिक रूप से ऐसा न हो सका हो, तो बाद में अपने व्यवहार का परिशोधन कर ले - ऐसे गलत व्यवहार को लम्बे समय तक नहीं चलने दे - यह कषायजय का तीसरा प्रकार है।
आपने सब कषायों को जीत लिया
एक श्रेष्ठी निःसंतान थे। वे पुत्र दत्तक लेना चाहते थे। किन्तु कोई बालक या युवक उनके यहाँ नहीं टिक पाता था। क्योंकि उनका स्वभाव अति उग्र था। ऐसे कई बालक बड़े प्रसन्न मुख से उनके घर आये और उदास होकर चले गये।
उनका एक सगोत्रीय था। जो उन्हें बड़े भाई के तुल्य मानता था। वह जो भी कोई विशिष्ट कार्य करता तो प्रायः उनकी राय लेता था। उसके चार पुत्र थे। श्रेष्ठी की दष्टि उसके चौथे पुत्र पर गयी। तीन पुत्रों का विवाह हो चुका था। चौथा पुत्र अभी युवावय में प्रवेश ही कर रहा था। उसका नाम किशोर था।
एक दिन श्रेष्ठी ने वार्तालाप के प्रसंग में अपने सगोत्रीय से कह दिया"तुम मुझे भाई-भाई तो करते हो। किन्तु भाई की इच्छा पूरी करो तब तब तुम्हारा भातृत्व सच्चा मान ।” उसने कहा-“मैंने आपकी बात का उल्लंघन कब किया? जो आज्ञा हो सो फरमाओ।"
श्रेष्ठी ने कहा-"कहना सरल है। करना मुश्किल है।" "कहो भी तो सही। क्या आज्ञा है ? आपके कहे अनुसार करूँगा।" "तुम्हारे चार पुत्र हैं। उनमें से एक को मुझे दत्तक दो।"
यह बात सुनकर सगोत्रीय काँप उठा। वह श्रेष्ठी के स्वभाव को भलीभाँति जानता था। वह अपने पुत्र को उनके यहाँ गोद देकर उसे दुःखी करना नहीं चाहता था। किन्तु वह वचन में बंध गया था। अतः वह वोला--