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तईओ परिच्छेओ-वसीकरणं
( कषायों को वश करना)
कषाय के उदय में जीव की परवशताकसायमोह णिज्जस्स, हवइ उदओ जया । ण जीवस्स वसे जोगा, ठंति चलइ वीरियं ॥ १ ॥
जब कषाय मोहनीय कर्म का उदय होता है, तब योग ( मन, वचन और काया के व्यापार ) जीव के वश में स्थिर नहीं रहते हैं और वीर्य भी चलायमान हो जाता है ।
टिप्पण - १. मन आदि का व्यापार वीर्यान्तर कर्म के क्षयोपशम से उपलब्ध वीर्य से होता है । २. वीर्य अर्थात् शक्ति, उत्साह । शक्तिमान आत्मा ही स्वाधीन रह सकता है, दुर्बल नहीं । ३. एक राज्य दूसरे राज्य पर अधिकार जमाने के लिये पहले उसकी शक्ति को तौलता है । फिर उसकी शक्ति को तोड़ता है और उसपर अपना अधिकार जमा लेता है । ४. कषाय भी उदय में आकर जीव के वीर्य को विचलित कर देता है और समता रूप शक्ति को तोड़ देता है । ५. हतवीर्य होने पर जीव निष्प्रभ हो जाता है । उसकी अपने पर भी प्रभुता नहीं रह पाती है । अतः उसका मन आदि का व्यापार उसके स्वाधीन नहीं रहता है । ६. कषाय से रंजित चेतना से उसका व्यापार चलता है । अतः कषायों का ही प्रभुत्व छा जाता है । जिससे कषाय से प्रेरित ही उसके समस्त कार्य होने लगते हैं । ७. जीव इसप्रकार कषायों के वशीभूत हो जाता है । अतः उस समय उसका प्रत्येक व्यापार उससे ही संचालित होने लगता है ।
कषाय के जेता विरले हैं
सोहं जेउं जगे वीरा, भड़े जेउं पि केइ य । भूमीए को समत्थोऽत्थि, कसायं जो वसं करे ॥२॥