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( १६१ ) घर के बाहर बैठकर मच्छी पर शस्त्र प्रयोग कर रही थी। मां रसोईघर में कार्य कर रही थी।
बहिन के द्वारा मच्छी का पेट विदीर्ण करने पर बर्तन में खन-खन करती हुई आवाज हुई। उसने देखा कि स्वर्ण मुद्रा है वह । उसने उसे कंचुकी में दबा ली। तभी मच्छी के उदर से और भी मुद्राएँ गिरी। वह उन्हें बीनबीनकर कंचुकी में दबाती जा रही थी। माँ का ध्यान उस ओर गया। उसने बेटी की चालाकी जानली । अतः उसने पूछा – “क्या है ?" बेटी ने बात दबायी- “कुछ नहीं।"
माता को बेटी के छल पर बड़ा क्रोध आया। उसने हाथ में जलती हुई लकड़ी उठायी और वह उसे मारने के लिये दौड़ती हुई बोली--"झूठी कहीं की ! बात दबाती है ! सोने की अकेली ही मालकिन बनना चाहती है !" वह बेटी के पास पहुँच गयी। उसने जलती हुई लकड़ी का बेटी पर प्रहार किया। उसे मर्म स्थान पर चोंट लगी। वह तिलमिला उठी। उसने जोर-से चिल्लाते हुए–“तू भी लेती जा !" कहकर छुरी फेंकी। वह सीधी जाकर माता के हृदय में घुस गयी। “हाय बाप रे!" कहती हुई दोनों एक साथ लुढ़क गयी। दोनों ने तड़पते हुए प्राण त्याग दिये।
दोनों भाई चिल्लाहट सुनकर भीतर आये । वे यह दृश्य देखकर स्तंभित रह गये। वे इसका कारण जानने के लिये इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने देखा कि जिस नौली को नदी में फेंका गया था, वह मत्स्य के उदर में दिखाई दे रही है । उन्हें माता और बहिन की पारस्परिक हत्या का कारण समझते देर नहीं लगी । बड़ा भाई दुःख भरे स्वर में बोला--"अहा! इस डाइन को हम पानी में फेंक आये। परन्तु इसने यहाँ आकर अपनी माता और बहिन को ही खा डाला।"
छोटे भाई को यह दृश्य देखकर अत्यन्त विरक्ति हुई। वह उद्वेग से बोला-"लोभी ना माने-ना माने प्रेम-सगाई !"