________________
( १६९ )
साधना में आ घुसता है। ३. श्रावक तो पाँचवें व्रत में परिग्रह की मर्यादा करता है। किन्तु लोक-कल्याण के प्रेमियों (मुनि साधकों) में मर्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता है । 'कौन अधिक दान देगा'-इस बात का गणित चलता ही रहेगा। ४. तथाकथित लोक-कल्याण में बाधक जन मूढ, मूर्ख, अज्ञानी, समय की गति को नहीं पहचाननेवाला आदि रूप में प्रतीत होने लगता है। ५. ऐसे लोक-पूजित महापुरुष धर्म को आमूल-चूल बदलने का बीड़ा उठा लेते हैं। उनकी ओर से महाव्रतों की परिभाषा ही परिवर्तित होने लगती है। ६. लोक-कल्याण, लोक-संग्रह, शासन-प्रभावना आदि के मिस लोकषणा रूप लोभांश में फंस जाते हैं और धर्म से स्खलित हो जाते हैं। ७. वैसे ही भक्तजन अपने ऐहिक सुख की लालसा में अपने गरुजनों को मंत्र, तंत्र, चमत्कार आदि की ओर प्रेरित करके उन्हें योगभ्रष्ट कर देते हैं।
(५) तीसरे द्वार का उपसंहार विविहाए य दिट्ठीए, वित्थरेण हु साहगा ! कसायाणेह-पारतं, फलं मुणह पासह ॥१०॥
और भी विविध दृष्टि से, हे साधको! कषायों के ऐहिक और पारलौकिक फल को विस्तार-पूर्वक निश्चय ही जानो और देखो।
टिप्पण-१. इस द्वार में कषायों की हानि-पश्यना उदाहरणस्वरूप ही प्रस्तुत की गयी है। इनके सिवाय अन्य दृष्टियों से भी कषायों की हानिपश्यना की जा सकती है। अतः साधक अपनी दृष्टि को परमार्जित करते हए इस विषय में अन्य रूप से भी चिन्तन कर सकते हैं। २. अन्य दष्टि के दो अर्थ-अध्यात्म दृष्टि और अध्यात्मेतर-दृष्टि । 'य' शब्द से अध्यात्म-दृष्टि में भी अन्य अवान्तर दृष्टियों का ग्रहण होता है और 'विविह' शब्द से अध्यात्मेतर दृष्टियों का ग्रहण होता है। ३. अन्य आध्यात्मिक दृष्टियाँ अर्थात् प्रस्तुत वर्णन में जिन दृष्टि-बिंदुओं से कषाय की हानि-पश्यना हुई