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टिप्पण - १. अनात्मता - पश्यना के पुष्ट होने पर उसके कुछ फल प्रकट होते हैं । इस द्वार का उपसंहार करते हुए तीन प्रमुख फलों का उल्लेख इस गाथा में किया है । १. यथा - निजत्व का निवारण, वृत्ति का वारण और उपेक्षा का संप्रसारण । २. क्रोधादि को आत्मा के अंश मानने के भाव अभाव हो जाना है, उनमें से निजत्व का निवारण है । ३. उनमें अपनापन नहीं रहने से उनमें वृत्तियाँ नहीं रमती है । यदि वृत्ति उनमें जाती है तो जीव वहाँ से उन्हें मोड़ता है। ४. जो अपना नहीं हो उसके प्रति उपेक्षा होना सहज ही है और फिर वह विस्तृत होती है । ५ इन तीनों फलों के सार रूप में कषाय की मंदता होती है ।
७. अपरिग्रह - द्वार
कषायों का परिग्रह अर्थात् कषायों की बौद्धिक या आन्तरिक पकड़ । कषायों की आन्तरिक पकड़ आभ्यन्तर परिग्रह है । कषाओं के परिग्रह से वे अत्यन्त दृढ़ हो जाते हैं । इस द्वार में उनके परिग्रह का स्वरूप समझकर उसके त्याग की भावना जगाई गई है ।
कषायों का परिग्रह प्रयत्न जन्य -
परिग्गहो कसायाणं, परस्सेव परिग्गहो ।
सो य होइ पयतह, पावो साहाविओ कहं ? ॥ १२४॥
heart at परिग्रह पर का ही परिग्रह है और वह ( कषायों की भीतरी पकड़) (कई) प्रयत्नों से ही होती है । अतः पाप स्वाभाविक कैसे ( हो सकता ) है ?
टिप्पण - १. कषायों को पिछले द्वार में अनात्मभूत सिद्ध किया जा चुका है। उन कषायों को बनाये रखने की वृत्ति ही उनके परिग्रह रूप में है । कषाय जब पर हैं, तब उनका परिग्रह पर का ही परिग्रह है । २. वस्तुतः