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वह कषायों की आंच में दग्ध नहीं होता। ५. जैसे किसी के प्रति अरुचि रखने पर वह हमारा सहवास छोड़ देता है या कभी साथ में रहने का प्रसंग भी आता है तो वह प्रीति नहीं जताता-अपने से अलगाव ही रखता है । वैसे ही कषायों में तीव्र अरुचि से कषायों का संग अल्प हो जाता है । कदाचित संग होता भी है तो अपने में डुबा नहीं सकता।
परिच्छेद का उपसंहार
एवं भाव-विहीए, किसा कसाया हवंति वान्नाहि । भावोल्लासम्मि कया वटुंति खयंपि काउं ते ॥१३६॥
इस भाव-विधि से या अन्य (=द्रव्यादि) विधियों से कषाय कृश होते हैं। वे (कषायों की दुर्बलता के भाव साधन) कभी भावों के तीव्र उल्लास में (उन्हें) क्षय करने के लिये भी प्रवृत्त होते हैं।
टिप्पण--१. कषायों को दुर्बल करने की वणित विधि भाव-विधि है। प्रधान विधि यही है। २. अनुभवियों ने द्रव्य आदि विधियाँ भी कही है। एक अनुभवी ने अपना अनुभव लिखा- 'मुझे क्रोध बहुत आता था । मैंने उसे क्षीण करने के लिये आहार पर संयम किया, परिमित रोटियाँ पानी में भिगोकर खाने लगा। और कुछ भी नहीं खाता । लगातार तीन महिने तक ऐसा करता रहा। तब मेरा क्रोध कम हुआ और उस पर नियन्त्रण पाया। क्योंकि एक वासना को जीतने पर अन्य दोषों को क्षीण करने की सामर्थ्य उत्पन्न होता है।' यह कषाय को दुर्बल करने की द्रव्यविधि है। ऐसी अन्य विधियाँ भी हो सकती हैं। ३. क्षेत्रविधि अर्थात् क्रोधादि को प्रबल करनेवाले स्थान से दूर हट जाना और क्षमा आदि उत्पन्न करने में हेतु रूप स्थान पर रहना। ४. कालविधि अर्थात् क्रोधादि उत्पन्न होने के क्षणों को टालना। ५. ये आठ भाव-कारण प्रधान रूप से कषायों को दुर्बल करते हैं। किन्तु कदाचित् भावोल्लास विशेष तीव्र होने पर ये कषायों के