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( १९१ ) टिप्पण-१. साधारण मनुष्य भी बंदीगृह में रहना पसंद नहीं करता। फिर सुखानुभव में स्थित जीव की अरुचि तो तीव्र ही होगी। २. राजा पुण्योदय से परम अनुकूलता में स्वाधीनता में रहनेवाले जीव का प्रतीक है। ३. भव्व शब्द का यहाँ आशय है-आसन्न भव्य अर्थात् अल्पकाल में ही मुक्त होने की योग्यतावाला जीव है। ४. भव्य जीव ही तीव्र संवेगवान हो सकता है। ५. मुक्ति के इच्छुक जीव को कषाय तीव्र बन्धन के रूप में प्रतीत होने चाहिये। ६. बन्धन दुःख रूप होते हैं-परतंत्रता रूप होते हैं। अत: वे अच्छे नहीं लगते हैं। वैसे ही कषाय में भी भव्य आत्मा किंचित् मात्र सुख न मानें-दुःखानुभव करे। ७. बन्धन और दुःख में अरुचि के समान कषायों में अरुचि होना चाहिये। कषायों में अरुचि का फल
जाणंतो वा अजाणतो, अग्गीए वागय करं । अरुईए कसायातो, तुरियं कड्ढए मणं ॥१३५॥
जानते हुए या अजानते हुए अग्नि में आये हए हाथ के समान (जीव) अरुचि के कारण कषाय से मन को जल्दी ही खींच लेता है।
टिप्पण-१. जान-बूझकर कोई अग्नि पर हाथ आदि नहीं रखता है। यदि जानकर कोई अग्नि पर हाथ रखता है तो पूरी सावधानी से रखता है। २. जाने-अनजाने अग्नि पर आया हुआ हाथ वहाँ लम्बे समय तक स्थित नहीं रहता। तत्काल ही हट जाता है। ३. कषायों में अरुचि का फल भी ऐसा ही है। कषायों में अरुचिवान जीव जबतक अप्रमत्त रहता है, तबतक वह कषायों को अपने ऊपर प्रभाव नहीं जमाने देता है। कदाचित प्रसंगवशात् कषाय जैसी स्थिति उत्पन्न कर लेता है तो उसमें भी पूर्णतः सावधान रहता है । अपने उपयोग को कषायों से रंजित नहीं होने देता है। ४. प्रमाद से कषाय का उदय जोर मारने लगता है तो उसमें अरुचि के कारण मन को टिकने नहीं देता है। ऐसे प्रसंगों से मन को जल्दी ही खींच लेता है।