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जैसे भोज्य पदार्थ प्रिय है, किन्तु वह विकृत रसवाला होता है तो घृणा के योग्य ही होता है । उसे कौन मुँह में डालता है ? अथवा (मुँह में डाल लिया हो तो ) थू-थू नहीं करते क्या ?
तहा भव्व ! कसायाणं, वियडो विरसो रसो । ते साऊ णेव घिण्णेसु, को आणंदो व का रई ? ॥१३३॥
इसीप्रकार हे भव्य ! कषायों का रस विकृत और अस्वाभाविक स्वादवाला है । वे स्वादु = रसानन्द प्रदान करनेवाले नहीं हैं । घृष्य पदार्थों में कैसा आनन्द और कैसी प्रीति या रुचि ?
टिप्पण - १. प्रिय से प्रिय किन्तु विकृत भोज्य पदार्थ के प्रति घृणा ही उत्पन्न होती है । उसके प्रति अरुचि - जन्य तीन प्रतिक्रियाएँ - उससे दूर रहना-छूना ही नहीं, उपभोग नहीं करना और कदाचित् भूल से या किसी कारण से उपभोग में आ गया हो तो बीच में ही घृणा - पूर्वक छोड़ देना । २. कषाय भी आनन्द प्रदाता नहीं है- इतना ही नहीं, किन्तु उसका रस भी विकारी भाव है । क्योंकि घृण्य पदार्थों में आनन्द - भोग की वृत्ति सुरुचि की परिचायक नहीं, किन्तु विकृत और अस्वाभाविक कुरुचि की ही परिचायक है : विडो और विरसो-इन दो विशेषणों से इस भाव को अभिव्यक्त किया गया है । ३. विकृत रसवाले प्रिय भोज्य पदार्थ में उत्पन्न अरुचि के समान ही कषायों में भी अरुचि उत्पन्न होना चाहिये ।
कषायों में जीव को कैसा लगना चाहिये
जहेव चारगे राया, ण हि रोयइ किचि वि ।
तहा कसाय - मज्झम्मि, ण भव्वाण रुई हवे ॥१३४॥
जैसे राजा को कैद में जरा भी अच्छा नहीं लगता है, वैसे ही कषायों में भव्य जीवों की रुचि नहीं हो या नहीं होना चाहिये ।