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कसासु रसो दुक्खं, अत्थि तेसि च वड्ढणं । ता रई तेसि मा कुज्जा, जइ तं मुत्तिमिच्छसि ॥१३१॥
कषायों में रस दुःख रूप है और उससे कषायों की वृद्धि होती है । यदि तू मुक्ति चाहता है तो उनकी रति प्रीति मतकर या उनमें
आनन्द मत मना ।
टिप्पण - १. क्रोध आदि में भी जीव की रसवृत्ति होती है । इन कषायों को करके एक तृप्ति का अनुभव करता है वह । २. इनमें रस होता है, तभी तो वे तीव्र होते हैं । ३. तीव्र कषाय से पापकर्मों का बन्ध होता है और पाप ही दुःखों का मूल है । अतः कारण में कार्य का उपचार करके कषाय के रस को ही दुःख कहा है । ४. कषायों में रस का कारण उनकी प्रीति और उनमें आनन्द मनाने की वृत्ति है । ५. उनमें आनन्दानुभूति से उनका रस नहीं छूटता है । ६. उनमें रस होने से उनका परिग्रह होता है । अतः कषायों का अभाव नहीं होता है । ७. कषाय - निधि की वृद्धि से कर्म - ध के हेतु बढ़ते हैं । फिर कर्मों का उपचय होता है । अतः फिर कर्मों के बंधने पर उन्हें भोगने होते हैं । ८. कर्मभोग के समय कषायों का रस विद्यमान रहता है । अतः कर्मबन्ध का हेतु कषाय पुनः उत्पन्न हो जाता है । इसप्रकार कषाय- रस से कषाय, कषाय से कर्म-बन्ध, फिर कर्मभोग, पुनः कषायरस और पुनः कषाय । इसप्रकार यह कर्म चक्र चलता रहता है । ९. कर्म के अभाव से ही मोक्ष होता है । किन्तु कषाय-रस के कारण कर्मों का खजाना कभी रिक्त ही नहीं होता है । अतः मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता है । १०. मोक्ष के इच्छुक को कषायों में दुःख-दर्शन करके उनमें से रस-वृत्ति को समाप्त करना ही होगा । ११. प्रीति से रस और रस से प्रीति उत्पन्न होती है । अत: किसी एक को तोड़ देने पर दूसरे भाव का भी अभाव हो जाता है । घृणित पदार्थ घृणा के योग्य ही होता है-
भोज्जं पियं जहा तं पि, घिण्णं हि वियडं रसं । को खिप मुहे तं वा, थूकारं न करेइ किं ॥१३२॥