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बोध-यह जीव की ज्ञानोपार्जन की प्राथमिक आराधना है। जिससे जीव को बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह को जानने की योग्यता उपलब्ध होती है। कषाय-परिग्रह को छोड़ने का क्रम और फल
चित्ते ठियम्मि हेयत्ते, गेज्झत्ते य गएजियो । कसायाणं मइग्गाहं, मुंचंतो झाण सोहइ ॥१३०॥
चित्त में कषायों के हेयत्वभाव के प्रतिष्ठित हो जाने पर और उपादेयत्व भाव के चले जाने पर जीव कषायों की बौद्धिक पकड़ को (क्रमशः) छोड़ता हुआ ध्यान को शुद्ध करता है।
टिप्पण--१. कषाय-परिग्रह को समझने के पश्चात् उसे छोड़ने की प्रक्रिया के प्रमुख अंग दो हैं हेय-बुद्धि और अग्राह्य-बुद्धि और कषाय छोड़ने योग्य हैं-ग्रहण करने योग्य नहीं है, ऐसी बुद्धि । इनका पिछले दो द्वारों में विवेचन हो चुका है। २. बुद्धि में ही कषायों की पकड़ होती है। जब बुद्धि उन्हें हेय और अग्राह्य मान लेती है और इस मान्यता में निश्चल हो जाती है, तब क्रमशः उनका परिग्रह छूटने लगता है। ३. कषाय अग्राह्यहेय है-ऐसी श्रद्धा से मिथ्यात्व की निवृत्ति होती है। फिर वह श्रद्धा और दृढ़ होती है। जिससे कषायों की पकड़ ढीली होने लगती है। ४. ज्यों-ज्यों कषायों का मतिग्राह छूटता जाता है, त्यों-त्यों ध्यान की विशुद्धि होती जाती है । कषायों के परिग्रह में ध्यान-शुद्धि नहीं होती और शुद्ध ध्यान के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं होता है। ५. सोहइ' शब्द से शोभन और शोधन दोनों अर्थ होते हैं । धर्मराग से ध्यान शोभन होता है और राग-द्वेष के क्षय से ध्यान का शोधन ।
८. अरुचि द्वार
कषायों में रस या रुचि ही उनका परिग्रह करवाती है । अतः कषायों में अरुचि करने योग्य है, जिससे उनका स्थायित्व न हो । कषायों में रति-आनन्द मत मानों