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उसे ( बौद्धिक चिन्तन से समझकर, जिनदेव और जिन प्रवचन में श्रद्धा रखते हुए) छोड़ो।
टिप्पण - १. माया और लोभ के परिग्रह के प्रसंगों की स्वयं विचारणा करने का निर्देश किया । २. छल-कपट में बुद्धिमानी समझना, छिपाव - दुराव को आवश्यक मानना, वक्र-वृत्ति में मनोरंजन - गौरव का अनुभव करना आदि भावों से माया का परिग्रह होता है । ३. लोभ में सुख मानना, लोभ के प्रसंगों का आयोजन करना, लोभ - वृद्धि हो - ऐसी चर्चा करना, कथा- कहानियाँ सुनना-सुनाना आदि से लोभ का परिग्रह होता है । ४. कषायों की पकड़ के विविध रूप हैं । उन्हें लोक व्यवहार में से खोजना चाहिये । जैसे— जुआ, हाथ की सफाई, जादू के खेल, किसी को चमत्कृत करने की वृत्ति आदि प्रसंगों से माया का और अर्थ कथा, अर्थशास्त्र आदि के चिन्तन से लोभ का परिग्रह होता है । नक्षत्रशास्त्र, स्वप्नशास्त्र आदि भी लोभ - परिग्रह के हेतु हो सकते हैं । ५. जिनदेव अर्थात् शुद्ध चैतन्य हमारे आराध्य और शुद्ध चेतना ही साध्य है, इस श्रद्धा से विकारों का परिग्रह त्यागना सहज हो जाता है ।
कषायों के परिग्रह को जानना कठिन --
धिट्ठो मूढो न जाणेइ, जो बज्झं पि परिग्गहं । परिग्गहं कसायाणं, भितरं किं मुस्सिइ ॥ १२८ ॥
जो धृष्ट मूढ़ बाह्य परिग्रह को भी नहीं जानता है, वह कषायों के आभ्यन्तर परिग्रह को क्या जानेगा ।
टिप्पण - १. अधिकांश संसारी जीव मूढ = मोह से अभिभूत रहते हैं । अतः उनका विवेक नष्टप्रायः रहता है । वे परमार्थ तत्त्व को समझ ही नहीं पाते हैं । २. संसारी धृष्ट उद्धत बुद्धिवाले - ढीट होते हैं । अतः कई बातों को कई बार सुनकर - जानकर भी सुन - जान नहीं पाते हैं । अध्यात्म