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रहना — उसको समाप्त नहीं होने देना, पीढ़ी-दर-पीढ़ी वैर चलता रहे वैसे प्रयत्न करना, क्रोध भड़काने के कार्य करना आदि से क्रोध का वर्धन होता है । ३. किसी भी रूप से क्रोध की पकड़ मजबूत हो, वे सब परिणाम क्रोधपरिग्रह है ।
मान का परिग्रह -
आओजणं पसंगाणं, माणट्ठा अहिणंदणं ।
हिट्ठरेण तेसि वत्तव्वं, करणं च पदंसणं ॥ १२६॥
मान के लिये प्रसंगों का आयोजन, अभिनन्दन ( का उत्सव ), हर्षित होते हुए उनका वक्तव्य और प्रदर्शन करना - ( यह मान का परिग्रह है ) ।
टिप्पण - १. इस गाथा में मान-परिग्रह के हेतु रूप चार कार्यों का - कथन किया गया है । यथा — मानार्थ प्रसंगों का आयोजन, अभिनन्दन - समारोह, हर्ष के साथ अन्यों के सन्मुख अपने को प्राप्त मान-सन्मान का कथन करना और सन्मान में प्राप्त वस्तुओं का प्रदर्शन करना । २. 'करणं' के -बाद के 'च' शब्द से उन आयोजन आदि का करवाना और अनुमोदन भी
हो जाते हैं । ३. 'हिट्ट' अर्थात् मान, सम्मान, प्रशस्तिगान - जय-जयकार आदि में हर्षित । इस शब्द से मान आदि प्राप्त नहीं होने पर द्वेषी होना भी ग्रहण कर लेना चाहिये । क्योंकि मान के अलाभ में द्वेष से भी मान का "परिग्रह होता है । ४. इनके सिवाय मान - परिग्रह के अन्य भी हेतु हो सकते हैं । माया और लोभ के परिग्रह के विषय में सूचना तथा त्याग की प्रेरणा
माया - लोहाण कज्जाणं, संगहो वि तहेव य । परिग्गहं कसायाणं, णेगविहं जहेज्ज तं ॥१२७॥
और माया तथा लोभ ( के परिग्रह) के कार्यों का संग्रह भी इसीप्रकार ( कर लेना है) । ( इसप्रकार ) कषायों का परिग्रह अनेक प्रकार का है ।