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पर की पकड़ ही परिग्रह है । पर को पकड़ रखना सहज रूप नहीं हो सकता । कषायों के परिग्रह के लिये प्रयत्नों की लम्बी श्रृंखला चलती है । ३. क्रोध करने में शारीरिक श्रम कितना पड़ता है और मान आदि करने में मानसिक बल कितना लगाना पड़ता है ? फिर उन्हें बनाये रखने के लिए भी कोई कम प्रयत्न नहीं करने पड़ते हैं । अतः न तो क्रोध आदि ही सहज हैं और न उनका परिग्रह ही । ४ पाप को जो सहज और स्वाभाविक मानते हैं, उनकी यह मान्यता सही नहीं है ।
क्रोध का परिग्रह —
कलहाइ - पसंगाणं, सईए णिच्च रक्खणं ।
वित्थरणं च बुद्धीए, दक्खयाए य वड्ढणं ॥ १२५ ॥
कलह आदि प्रसंगों का स्मृति के द्वारा नित्य रक्षण, बुद्धि के द्वारा विस्तार आदि और दक्षता आदि के द्वारा वर्धन होता है ।
टिप्पण -- १. क्रोध परिग्रह के प्रमुख तीन कारण — स्मृति, बुद्धि और दक्षता । दक्षता के पश्चात् य शब्द से अन्य करणों को ग्रहण किया गया है । जैसे -- उपहास, अबोला, वाचालता आदि । २. क्रोध - परिग्रह के तीन प्रकार - रक्षण, विस्तार और वर्धना ( अ ) जैसे किसी पदार्थ की रक्षा करने के लिए उसे पुनः देखा और हिलाया जाता है । वैसे ही क्रोध के प्रसंग का बारबार निरीक्षण करना और उसकी बार-बार आवृत्ति करना — उसका रक्षण है। जिससे उसका विस्मरण नहीं होता है और उसकी जड़ें सुदृढ़ होती हैं । (आ) क्रोध के प्रसंग को बढ़ा-चढ़ाकर देखना, तर्क-वितर्क से अपनी प्रत्येक बात को उचित और अन्य की बात अनुचित अनुत्तरदायित्वपूर्ण सिद्ध करना तथा उनसे संबन्धित जनों आदि से भी अनबन करते हुए उसके प्रत्येक पदार्थों एवं कार्यों के प्रति अरुचि करना क्रोध का विस्तार है | वित्थरणं के पश्चात् के 'च' शब्द से अन्य क्षेत्र का बदला अन्य क्षेत्र में लेना, विविध रूप से हानि पहुँचाना आदि ग्रहण किये गये हैं । (इ) क्रोध के प्रसंग को लंबाते