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में कैसे होते । अतः अशुद्ध निश्चयनय से वे जीव के ही विभाव हैं । जीव में ऐसी विभाव- परिणमन की योग्यता है । वैसे ही पुद्गल में भी वैसी ही योग्यता है । अत: क्रोध आदि कर्म पुद्गल रूप ही हैं और पुद्गल द्रव्य की विकारी पर्याय हैं । ४. पुद्गल के अशुद्ध पर्यायों के निमित्त जीव में अशुद्ध पर्याय उत्पन्न होते हैं और उन अशुद्ध पर्यायों के निमित्त से जीव में तथारूप पुद्गल के अशुद्ध पर्याय जमा होते हैं । अतः वे दोनों के वैभाविक पर्याय हैं । ५. व्यवहारनय से जिसके निमित्त से जो पर्याय होते हैं, वे उसीके पर्याय कहे जाते हैं । अतः जीव के निमित्त से उत्पन्न कर्म-पर्यायों का उत्तरदायित्व जीव पर है और क्रोधादि कर्म-जनित जीव के वैभाविक भाव का हेतु कर्म के हैं । अतः वे पर के ही हैं । अतः पुद्गल में कर्म-पर्याय पुद्गलद्रव्य में अनात्म रूप हैं और जीव में उत्पन्न क्रोधादि विभाव जीव में अनात्म रूप हैं अर्थात् वे जीव के अपने भाव नहीं हैं । जीव उनसे अपनेपन की वृत्ति हटा ले । ६. दोनों नयों के समन्वय से साधना-मार्ग प्रशस्त होता है । जीव में शुद्धि अभीष्ट है । जीव में अशुद्धि हो, तभी उसकी शुद्धि का प्रश्न उठता है । अत: निश्चयदृष्टि से यह मान्य है कि वह अशुद्धि जीव का ही अंश है । वस्तुतः अशुद्धि जीव की है तो शुद्धि कैसे होगी ? इसका समाधान व्यवहारदृष्टि करती है कि अशुद्धि भले ही जीव का अंश हो किन्तु वह बहिर्भूत पदार्थ के निमित्त से होती है । अतः वह अशुद्धि भी उसी की है । अशुद्धि अपनी नहीं हो, तभी उस द्रव्य की शुद्धि होगी । अशुद्धि सदैव आगन्तुक होती है । भले ही वह अनादि से है । फिर भी कर्म रूप परनिमित्त से होती है । अतः पर है—- अनात्म रूप है ।
द्वार का उपसंहार—
सापस्सा कसायाणं, नियत्तं हिच्च वारइ ।
विति ताहि उवेक्खं च, तेसुं करेइ मंदयं ॥ १२३॥
वह (अनात्म - ) पश्यना कषायों की निजता अपहरण करके, उनसे ( जीव की) वृत्ति मोड़ती है और उनमें उपेक्षा और मन्दता प्रदान करती है ।