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भोगी चञ्चल मन उसे नहीं कर पाता है । इस साधना को करने के लिये उत्कट संकल्प बल चाहिये । ८. जइवा....चरण से साधना-विधि की दुःशक्यता या दुर्बल मनवालों के लिये अशक्यता का संकेत किया है। ऐसे जनों के लिये अगले (चतुर्थ) चरण में विकल्प का विधान कर दिया है । उसके लिये आसन, मौन आदि किसी का भी बन्धन नहीं है । परन्तु जैसे भी वह साधना में मन लगा सकता हो, वैसे लगाये । ९. उन भावों के पोषक संगीत का गान, किसी गाथा के एकाध चरण का चिन्तन, अपने नाम के सम्बोधन पूर्वक अपने आपको अपना आदेश आदि विषय के विकल्प हैं । चलते, उठते-बैठते आदि आसन के विकल्प है । जब भी ध्यान आया तब मन को साधना में जोड़ना - समय का विकल्प है । १०. मन नहीं लगे तो निराश नहीं होना, परन्तु कुछ न कुछ भाव - पूर्वक अवश्य करना । ११. साधना का तत्काल प्रभाव न दिखाई दे तो भी साधना की उत्सुकता बनाये रखना । कभी-कभी ही हो सके तो भी करना ।
विधि या अविधि से भी अभ्यास क्यों करना चाहिये - इसका कारण
अण्णाणेण कसायाणं, जाई वुड्ढी हवंति णं । णाणेण सुवियारेहि, बुद्धे मणे पहीयए ॥१३९॥
अज्ञान से कषायों की उत्पत्ति और वृद्धि अवश्यमेव होती है और ज्ञानसे तथा उत्तम विचारों से मन के प्रबुद्ध होने पर ( कषाय) क्षीण होते हैं ।
टिप्पण - १. कषाय की उत्पत्ति और वृद्धि का प्रमुख हेतु अज्ञान है । यद्यपि कषाय के उदय का आशय मोहकर्म का उदय है और मोहकर्म के उदय में मोहकर्म ही कारण होता है, फिर भी अज्ञान के कारण उनका उदय -- निरोध और उदयविफलीकरण न होने से यहाँ अज्ञान को ही हेतु कहा है । २. अज्ञान अर्थात् विकृत समझ, समझ की कमी और अविचार या कुविचार | ३. ज्ञान शब्द का प्रस्तुत प्रसंग में अर्थ है - कषायों का स्वरूप - बोध आदि