Book Title: Mokkha Purisattho Part 03
Author(s): Umeshmuni
Publisher: Nandacharya Sahitya Samiti

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Page 210
________________ ( १९३ ) वश और क्षय करने के हेतु भी हो सकते हैं। कभी इनसे वशीकरण और क्षयकरण के हेतुओं का उद्भव भी हो सकता है। इन्हें कैसे भी किया जा सकता है चितिय वइय पढिय वा, आसंतो वा करे चरतो ते। तेसु ण पडिबंधो खलु, तहवि पहो विहिपरो होइ ॥१३७॥ उन्हें चिन्तन करके, बोलकर या पढ़कर बैठे हुए या चलते हुए करेंइन (भावों) में वस्तुतः कोई प्रतिबंध नहीं है। फिर भी मार्ग तो विधिपरक ही होता है। टिप्पण-१. इस गाथा में इन भाव-हेतुओं के सेवन के अनेक प्रकारों का वर्णन किया गया है। जिससे यह सिद्ध होता है कि इनके लिये किसी विशेष विधि का प्रतिबंध नहीं है। २. प्रथम प्रकार मानसिक चिन्तन रूप है। इन्हें पहले पढ़कर समझ लें। फिर अपनी इच्छानुसार अपने भावों में इनकी मौन रूप से अनुवृत्ति की जा सकती है। ३. दूसरी विधि है-बोलकर करने की। इन भाव हेतुओं का स्वरूप समझने के पश्चात् अपने कानों को सुनाई दे-इसप्रकार बोलकर करना। ४. यदि याद नहीं रह पाये तो भावों का आलेखन कर लेना चाहिये । फिर उन्हें पढ़ते हुए भी आराधना की जा सकती है। ५. वा शब्द से सूचित होता है कि किसी से सुनकर भी किये जा सकते हैं अर्थात् कोई सूचन करे और आप स्वयं भावानुवृत्ति करते जायँ । भावानुवृत्ति तो सभी विधियों में आवश्यक है। ६. इन्हें करने के लिये अमुक आसन आदि का भी कोई बन्धन नहीं है। बैठकर या चलते-फिरते हुए भी इनका अभ्यास किया जा सकता है। बैठना अर्थात् आसन । खड़े, बैठे और सोये हुए आसन से किये जा सकते हैं। ७. यद्यपि अभ्यास के लिये कोई भी विधि नियत नहीं है, तथापि कोई भी अभ्यास व्यवस्थित होना चाहिये और व्यवस्थित अभ्यास ही मार्ग होता है। मार्ग तो विधिपरक ही होता है।

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