________________
( १८७ )
भाव में उनकी दृष्टि ही नहीं जमती है। ३. विवेक से रहित मूढ़ और निर्मल बुद्धि के स्थैर्य से रहित धृष्ट जीव बाह्यपरिग्रह को भी परिग्रह रूप में नहीं समझ पाता है । बाह्यपरिग्रह अर्थात् धन-धान्य, क्षेत्र-वास्तु आदि की संग्रहवृत्ति-ममता। ४. कषायों को पकड़े रखना-छोड़ना नहीं आभ्यन्तर परिग्रह है। जो बाह्यपरिग्रह के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ सकता, वह आभ्यन्तर सूक्ष्म विकारों के परिग्रह को समझने की बौद्धिक क्षमता को कैसे प्राप्त कर सकेगा? आभ्यन्तर परिग्रह को समझने की क्षमता कैसे प्राप्त होती है
पढमं खलु जाणेज्जा, दोसं दोसं गुणं गुणं । बुज्झिज्जइ तया तेण, दोसाणं पि परिग्गहो ॥१२९॥
(अतः साधक) पहले दोषों को दोष रूप में और गुणों को गुण रूप में निश्चय ही जानें। तब उसके द्वारा दोषों का भी परिग्रह जान लिया जायेगा।
टिप्पण-१. कषाय-परिग्रह को जानने की प्राथमिक तैयारी के रूप में दोष और गुणों का स्वरूप-ज्ञान । २. गाथा में 'खल' शब्द के द्वारा निश्चयात्मक ज्ञान पर जोर दिया गया है अर्थात् 'दोष दोष ही है और गुण गुण ही' यह निश्चयात्मक ज्ञान-प्रथम आवश्यकता है। ३. इस निश्चयात्मक ज्ञान से मूढ़ता और धृष्टता दूर होकर विवेक और साधना में तत्पर होनेवाली वत्ति की प्राप्ति होती है। क्योंकि विवेक और साधना में तत्पर होने की वृत्ति ही साधना के प्रमुख अंग हैं। ४. निश्चयात्मक ज्ञान से यह निर्णय होता है कि दोष आत्मज होते हुए भी पर हैं। पर की पकड़ परिग्रह है। भले ही वह पर बाह्य हो या आभ्यन्तर । ५. गुण पर सुदेव,सुगुरु और जिनप्रज्ञाप्त धर्म के निमित्त से प्राप्त होने पर भी आत्मीय होते हैं । अतः गुणों की पकड़ परिग्रह नहीं, आराधना है। ७. गुरुचरणों की विनय-पूर्वक सेवा, उनसे जिन-प्रज्ञप्त-धर्म के ज्ञान की भक्ति-पूर्वक उपलब्धि, ज्ञान के द्वारा आत्म-चिन्तन और आत्म-चिन्तन से दोषों और गुणों का निर्णायक निश्चल