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नहीं जम सकती है' तथा 'लाभ की लालसा कोई दुर्गुण नहीं है'--ऐसे या कुछ इसप्रकार के भाव कषाय की उपादेयता के मल में रहते हैं। २. सामान्य जन को तो कषाय गौरव रूप लगते ही हैं। परन्तु बड़े-बड़े विज्ञ जन भी इस भाव से ग्रस्त रहते हैं। साधक जन में भी कहीं बुद्धि की गहरी तहों में कषाय की उपादेयता के भाव छिपे रहते हैं। ३. कषाय में हित-बुद्धि की स्वीकृति ही उन्हें ग्राह्य बनाती है-आत्मीय सिद्ध करती है । ४. बुद्धिगत इस सूक्ष्मदोष की खोज करना और उसे दूर करने का आन्तर पुरुषार्थ करना ही अनुपादेयत्व-पश्यना का कार्य है। ५. कषायों की अनुपकारिता, आकुलताउत्पादकता आदि सोचते हुए उनकी उपकारिता आदि को भ्रम रूप चिन्तन करना अनुपादेयता पश्यना है, जिससे उन्हें ग्रहण करने योग्य मानने की बुद्धि का अभाव हो। ६. जीव उन्हें हेय मानकर भी देश-कालानुसार करणीय मान लेता है-यही जीव की भूल है।
कषाय की मोहरूपता
कसाया मोह-पज्जाया, सोसंसारस्स मूलओ । भव-माला हि संसारो, णोवादेया कयाविते ॥११४॥
कषाय मोह के ही पर्याय हैं । वह (मोह) संसार का मूल है और संसार भव-माला रूप ही है। अतः वे (कषाय) कदापि उपादेय नहीं हो सकते हैं।
टिप्पण-१. कषाय मोह के ही अंश हैं। जैसे किसी को हिताहित का बोध देना-यह विवेक-बुद्धि है, किन्तु आवेश में आ जाना क्रोध कषाय है। मान-सन्मान पाना-शुभ नामकर्म का उदय है। किन्तु उसकी चाह करनाअपने को महान बताने की चेष्टा करना आदि मान कषाय है। ऐसे ही अन्य कषायों के विषय में भी समझना चाहिये। २. मोह अर्थात् श्रद्धा और चरित्र की विकृति। मोह है तो संसार है-अगणित भवों की चक्र-माला है। उसी मोह के अंश रूप ही तो कषाय हैं। ३. मोह जीव का उपकारी नहीं है। अतः