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कषाय भी उपकारी नहीं हैं । ४. अनुपकारी - अहितकारी से दूर रहना - उसका संग नहीं करना ही उत्तम है । अतः कषाय भी ग्राह्य नहीं है ।
कषाय से आकुलता
आउलया कसायत्तो, दुहरूवा हि सा सया । विउल- पुण्ण-संजोगे, सोगतत्ते करे जिए ॥११५॥
कषाय से आकुलता होती है और वह सदा दुःख-रूप ही होती है । यह संभव है कि वह विपुल पुण्य-संयोग में (भी) जीवों को शोक से संतप्त कर दे ।
टिप्पण - १. कषाय से निष्पन्न भाव-विकृति आकुलता रूप ही होती । २. आकुलता दुःख है; अनाकुलता समतारूप है, अतः वह सुख है । ३. आकुलता ममता की सहजन्मा है । अत: वह समता को -सुख को नष्ट करती है । ४. बहुत अधिक पुण्य-जनित अनुकूल संयोगों में भी कषायवशात् आकुलता हो सकती है। अतः जीव अकारण ही शोकाकुल हो सकते हैंअनावश्यक रूप संतप्त हो सकते हैं । ५. सुख का नाशक, दुःख - उत्पादक और अनुकूल संयोग को निःस्वाद बनानेवाला उपकारी कैसे हो सकता है । कषाय से लाभ नहीं
ण लाभो अंसमित्तो वि, लोउत्तरो य लोइओ । कसाएहिं तु जो दिट्ठो, दिट्टिभमोत्तिसो मुण ॥ ११६ ॥
कषायों से लोकोत्तर या लौकिक लाभ अंशमात्र भी नहीं है । किन्तु ( उसमें ) जो (लाभ) देखा गया है, वह दृष्टिभ्रम है - यह ( अच्छी तरह से ) समझ |
टिप्पण - १. लोकोत्तर = धर्म-आराधना से संबन्धित । लौकिक: संसार-संबन्धी । कषायों से सांसारिक या धार्मिक कोई भी लाभ नहीं है । २. दृष्टिभ्रम अर्थात् बाह्य वातावरण से उत्पन्न परिस्थिति विशेष से विपरीत
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