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दिखाई देना । जैसे मरुभूमि की धूप से चिलचिलाती हुई रेत में जलाशय दिखाई देना । जलाशय न होने पर भी उसका प्रतीत होना चक्षुर्गत दृष्टि
भ्रम है । वैसे ही कषायों से लाभ न होने पर भी उनमें लाभ प्रतीत होना आत्मगत दृष्टिभ्रम है । ३. यह ज्ञान से ही जाना जा सकता है। कषाय में राग छोड़ो
तेसुं रागो तहा दोसो, गुणे तम्हा भवे गई । तदुवा देयया भावं, मिच्छत्तं ति वियाणिया ॥११७॥
उन (कषायों) में राग और गुण में द्वेष है । इसी कारण भव में गति - संसार में परिभ्रमण है । वस्तुतः कषाय की उपादेयता के भाव को मिथ्यात्व समझो (और उसे छोड़ो ) ।
टिप्पण - १. जीव कषायों में रागी है। क्योंकि वह उनसे लाभ मानता है । २. कषायों में राग के कारण गुण ( = धर्म आराधना और धार्मिक जनों) में द्वेष है । ३. ये दोनों भाव ही भवराग और मुक्तिद्वेष के रूप में ही परिणत हो जाते हैं । ४. भवराग और मुक्तिद्वेष से कषायों में उपादेयबुद्धि दृढ़ होती है । जिससे भव-भ्रमण की वृद्धि होती है । ५. कषायों की उपादेयता का भाव मिथ्यात्व है । ६. इस मिथ्यात्व को ज्ञपरिज्ञा से जानना और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागना चाहिये ।
द्वार का उपसंहार—
तच्चताए सुहं तेसु, पक्खवाओ विनस्सइ ।
गहण - रक्खणाभावा, सो कि ण होइ दुब्बलं ॥ ११८ ॥
उस ( अनुपादेयता -- ) चिन्तना से उन ( कषायों) में सुख और पक्षपात नष्ट हो जाता है । ग्रहण और रक्षण के अभाव के कारण वह (कषाय ) क्या दुर्बल नहीं होता है ?