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के दो भेद - आचारगत और गुणस्थान – आरोहण । इन गुणों की सम्पन्नता गुणशिखरारूढ़ता है । ८. लोभ का जिस स्तर तक वश चलता है, वहाँ से वह गुणी आत्मा को गुण से पतित कर देता है । ९. भूतल के दो अर्थ - निम्न क्षेत्र अर्थात् अधोलोक -सातवीं नरक तक और अधम- अवस्था । अधमअवस्था के तीन रूप - दुर्जनता, दुर्भव नरक, निगोद आदि और मिथ्यात्व गुणस्थान ।
उपसंहार और चेतावनी
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एवं सुणिज्ज जाणिज्ज, लोभं चितिज्ज पासह | इह-पारत्त होणत्तं, करतं अमियं दुहं ॥१०२॥
इसप्रकार ऐहिक और पारलौकिक हीनत्व और असीमित दुःख ( उत्पन्न ) करते हुए लोभ ( से होनेवाली दुर्दशा) को सुनो, जानो, सोचो और देखो ।
टिप्पण - १. लोभ के कारण स्नेह-सम्बन्धों का टूटना, नैतिकता का ह्रास होना, समाज- देशादि को हानि पहुँचाना आदि इहलौकिक हानियाँ हैं और नरक आदि दुर्गति में जाना अगले भव में दरिद्रता पाना आदि पारलौकिक हानि हैं । २. लोभ से चरित्रनाश या पंचाचार से भ्रष्टता से उभय लोक में हानि होती है । संतोष के नाश से आत्मिक हानि होती है और मोक्ष का द्वार अवरुद्ध होता है । ३. लोभ के स्वरूप और उससे होनेवाली हानियों को सुनने से उसकी हेयता का ज्ञान होता है । उसकी हेयता को जानने से उसकी दुःखरूपता का पुनः पुनः चिन्तन होता है और चिन्तन से उसे छेदने की तीव्र दृष्टि उत्पन्न होती है । ४. श्रवण बाह्य है और ज्ञान, चिन्तन और पश्यना आभ्यन्तर हैं । ज्ञान और चिन्तन पराभिमुख और आत्माभिमुख दोनों प्रकार का होता है । परन्तु अपने में दोषवृत्ति (लोभ आदि) को जानने और सोचने के लिये उन्हें आत्माभिमुख बनाना परम आवश्यक है । पश्यना तो आत्माभिमुखा ही होती है । पर के प्रसंग, उदाहरण