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नहीं हो जाते हैं। क्योंकि ग्रहण के योग्य उनका स्वभाव ही नहीं है । वस्तुतः वे देह में रूककर पीड़ा करते हैं । ३. वैसे ही कषाय जड़ में नहीं, जीव में
पैदा होता है । किन्तु जीव-जनित होने मात्र से वह उपादेय नहीं हो सकता है । मल तो देह में रुकने पर पीड़ा करता है, परन्तु कषाय तो उदय मात्र से जीव को पीड़ित करता है । ४. मल देह का स्वाभाविक अंश नहीं है । वैसे ही कषाय भी जीव का स्वाभाविक अंश नहीं है । ५. मल घृणित होता है, वैसे ही कषायों को भी घृणित मानना चाहिये - वैसा अनुभव करना चाहिये ।
असुई देह-गेहेसु, ठिया करेइ सा दुहं ।
तहा सव्व- कसायावि, ठियायंक- करा मणे ॥ १०९ ॥
अशुचि देह और घरों में पड़ी रहती है तो वह दुःख ( उत्पन्न ) करती है । उसी प्रकार सभी कषाय मन में टिके रहते हैं तो आतंक उत्पादक हो जाते हैं ।
टिप्पण - १. देह में रुका हुआ अशुचि पदार्थ रोग उत्पन्न करता है और वह घर में पड़ा हुआ सडान्ध फैलाकर वातावरण खराब करता है । २. मन में स्थित कषाय मन को विकृत करता है - रुग्ण बनाता है । ३. घर में व्याप्त कषाय पारस्परिक व्यवहार में विकृति पैदा करता । ४. शब्द के 'त्यागने योग्य' अर्थ की अपेक्षा १०७वीं गाथा में और दूसरे अर्थ'घृणा के योग्य' की अपेक्षा १०८वीं १०९वीं गाथा में कषाय के साथ संयोजित की है ।
कषाय के हेयत्व के अन्य हेतु
कम्मं करंति दुचिचणं, कसाया न पुणो सुहा । नासा पुरिसत्याण, हेयत्तं तेस्सि नो कहं ॥ ११० ॥