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४. हेयत्व-पश्यना - द्वार
कषाय छोड़ने योग्य हैं
तेहि हाणि तु पासिज्जा, ते णच्चा दुह-कारणा । जहियव्वा कसाया ते, इत्थ ण कोइ संसओ ॥ १०७॥
उन ( कषायों) से हानि को देखो । अतः उन्हें दुःख के कारण जानकर - 'वे छोड़ने योग्य हैं' — इसमें कोई संशय नहीं है - ( यह देखो ) ।
टिप्पण - १. हानि - कारक पदार्थ या जन छोड़ने योग्य होता है । २. कषाय-हानिकारक भाव है । ३. जो हानिकारक होता है, वह दुःख का हेतु होता है । दुःख के कारण भी छोड़ने योग्य हैं । ४. अतः कषाय भी छोड़ने योग्य है । ५. कषायों में चैतन्यरूपता प्रतीत होती हैं । अतः उन्हें हेय मानने में संशय हो सकता है । उस संशय के निवारण की इस गाथा में प्रेरणा दी गयी है । ६. यहाँ 'तु' शब्द द्वार - परिवर्तन का सूचक है ।
कषाय हेय अर्थात् घृणा के योग्य है—
देहमलं च तज्जायं, गेज्नं णरो ण जीवजायं कसायं पि, मण्णेज्जा हु
मण्णइ ।
दुगु छियं ॥ १०८ ॥
और देह के मल को, उससे उत्पन्न होने पर भी, मनुष्य ग्रहण करने योग्य नहीं मानता है, ( प्रत्युत घृणित मानता है), वैसे जीव से जन्य ( होने से ) कषाय को भी ( ग्राह्य नहीं, किन्तु ) निश्चित रूप से घृणा के योग्य मानना चाहिये ।
टिप्पण - १. हेय शब्द का दूसरा अर्थ - घृणा के योग्य है । इस गाथा में इसी आशय को स्पष्ट किया है । २. आँख, कान, नाक आदि का मैल और विष्ठा अपने ही देह से उत्पन्न होते हैं । परन्तु इतने मात्र से वे ग्राह्य